Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
नैतिकता भरा आचरण ले जाता है सदाचार के मार्ग पर
होगा स्फूर्ति या सजगता, अतः अप्रमाद का अर्थ है आत्म-जागृति। मनुष्य के मन-मानस पर जब कषाय-वृत्तियां आक्रमण करती हैं तो मनुष्य भयभीत हो जाता है कि पास का कुछ खो जाए या उसकी वजह से कोई नई विपदा न आ जाए। इस भय स्थिति को अप्रमत्त अवस्था दूर देती है। जबकि अप्रमत्त को किसी प्रकार का भय नहीं रहता (सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं-आचारांग, 1-3-4)। बुद्ध भी यही कहते हैं कि प्रमाद मृत्यु है और अप्रमाद अमरता है, जागरूक को कहीं भय नहीं होता (धम्मपद-21)। अप्रमत्त अवस्था संयम के साथ जुड़ती है और नैतिक जीवन, आचरण शुद्धि तथा चरित्र गठन के बाद में ही संयम की अवस्था आरंभ हो सकती है। सच कहें तो मानसिक शुद्धिकरण के लिये आचार विधि या चरित्र निर्माण के साथ मनोवैज्ञानिक विधि अच्छी कारगर हो सकती है। नैतिकता का अतिक्रमण ले जाता है आसक्ति एवं बंधन से मुक्ति तक :
समझें कि एक रेलगाड़ी को दिल्ली से मुंबई जाना है तो वह रास्ते के सारे स्टेशनों से गुजर कर ही अन्त में मुंबई पहुंच सकती है। उसकी मंजिल होगी मुंबई, किन्तु बीच के सभी स्टेशनों को पार करना पड़ता है। यों एक-एक स्टेशन का अतिक्रमण करते हुए ही रेलगाड़ी अपनी मंजिल तक पहुंचती है। इसी तरह जीवन की रेलगाड़ी भी चलती है और इसे भी मंजिल तक पहुंचने के लिये बीच के स्तरों के लिये तैयारी भी करनी होती है तो आगे बढ़ने के लिये उनका अतिक्रमण भी करना होता है। जैसे नैतिकता की प्राप्ति, चरित्र निर्माण अथवा सदाचार के मार्ग पर संचरण-ये सब मंजिल के बीच के बिन्दु है। जब आचरण पूर्णतः नैतिक हो जाता है, सुचारू चरित्र गठित हो जाता है या सदाचार के मार्ग पर गत्यात्मकता बढ़ जाती है तो आगे के स्तरों तक पहुंचने का प्रयास करना होता है। इस प्रयास के समक्ष आ जाती है मंजिल की झलक। जब नैतिकता अतिक्रमित होती है तो नर में नारायणत्व की रूपरेखा उभर आती है और जब सदाचार की सहज उपलब्धि हो जाती है तो परमात्म दर्शन की अवस्था आ जाती है।
यों नैतिकता का अतिक्रमण आसक्ति आदि सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति की ओर ले जाता है। इसके स्तरों को समझिए मनुष्य पहले पशुत्व के गुरूत्वाकर्षण से निकला तो गति आगे बढ़ी। मानवता के क्षेत्र में पारस्परिक दायित्व निर्वाह से दृष्टि और सृष्टि विस्तृत हुई तो जीवन का परिष्कार हुआ और देवत्व की चमक उभरी। अपने ऊपर लदे ऋणों का मोचन किया तो निर्भार हुआ और तब नैतिकता के अतिक्रमण की स्टेज आ गई। इस स्टेज पर राग, मोह, लगाव घटने और हटने लगा तथा विराग (डिटेचमेंट) का दौर शुरू हुआ, अनासक्ति की बयार बही और इस प्रकार नैतिकता का अतिक्रमण ले जाता है आसक्ति एवं बंधन से मुक्ति तक। ___ यहां यह समझिए कि विराग या अनासक्ति या डिचेटमेंट क्या होता है? मैं ऐसा हूँ-वैसा हूँ यह मेरा है-यह बंधन है, अटेचमेंट है, राग और मोह है। इस 'मैं' के बंधन हैं1. देह : अपने शरीर का ममत्व सर्वाधिक प्रबल होता है। 2. गेह : घर-सम्पत्ति का स्वामित्व भी मनुष्य को खूब आकर्षित करता है।
223