Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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विभिन्न धर्मग्रंथों, वादों-विचारों में चरित्र निर्माण की अवधारणाएँ
भावना दोनों का उत्तम विकास अपेक्षित है तथा इस विकास का प्रायोजक एवं साधक है धर्म। यह किसी नामचीन धर्म की बात नहीं है-यहां धर्म प्रधान रूप से कर्तव्यों का पंज है। धर्म के प्रसार तथा विस्तार का आधार होता है चरित्र, जिसके गुण एक ओर धर्म को धृतियोग्य बनाते हैं तो दूसरी ओर मानव को पूरी मानव जाति के प्रति उत्तरदायी। जहां तक समाज का प्रश्न है इस शब्द का प्रयोग सम्पूर्ण मानव समाज के लिये किया जाना चाहिए। यों धर्म और समाज परस्पर जुड़ते हैं-मानव व्यक्तित्व से तथा मानवीय मूल्यों से-जिनका जनक होता है मानवीय चरित्र। समझिए कि एक मानव हो अथवा सम्पूर्ण मानव जाति-इसके उच्चतम विकास की नींव का पत्थर है-मानव का चरित्र। इससे चरित्र निर्माण की अनिवार्यता समझी जा सकती है। यही कारण है कि सभी क्षेत्रों में चरित्रगठन पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। - परिवर्तनशील परिस्थितियां सदैव मानव समाज के लिये चुनौती के रूप में सामने आती हैं और उनका सामना करने के लिये जो प्रयत्न किये जाते हैं तथा कष्ट उठाये जाते हैं, उनसे सभ्यताओं का जन्म एवं विकास होता है। प्राणी द्वारा अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल ढालने के अनवरत प्रयत्न का नाम है जीवन। अनुरूप ढाल लेने से प्रगति होती है और न ढाल पाने पर विनाश । प्रगति या उन्नति को भौतिक या तकनिकी दृष्टि से नहीं नापा जा सकता है। यह अंकन आत्मा के संसार में सृजनात्मक प्रयत्नों की दृष्टि से ही होता है। इन्हें सृजनात्मक प्रयत्न कह सकते हैं-आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति आदर, सत्य एवं सौन्दर्य के प्रति प्रेम, धर्म परायणता, न्याय, दया, पीड़ितों के प्रति सहानुभूति और मनुष्य मात्र के भ्रातृत्व में विकास। इन गुणों के पुंज को चाहे चरित्र कहिए या धर्म-एक ही बात है, बल्कि आज इन्हीं गुणों को व्यापक रूप से सम्पादित करके अपनी गौरवशाली सभ्यता तथा संस्कृति को आधुनिक सभ्यता के साथ रूपान्तरित करके संरक्षित बना सकते हैं।
प्रत्येक सभ्यता किसी न किसी धर्म की अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि धर्म मानवता के परम मूल्यों में विश्वास तथा उन मूल्यों को उपलब्ध कराने के लिये जीवन की एक पद्धति का प्रतीक होता है। यदि हमें यह विश्वास न हो कि वे मूल्य जो किसी सभ्यता में निहित हैं-परम हैं तो उस सभ्यता के नियम निर्जीव अक्षर बन जाएंगे और उस की संस्थाएं नष्ट हो जाएगी। धार्मिक विश्वास हमारे मन में किसी जीवन पद्धति पर डटे रहने के लिये उत्साह भरता है और यदि उस विश्वास का हास होने लग जाए तो धर्म के प्रति आज्ञापालन घट कर मात्र आदर रह जाता है। इसी कारण जो आगमोक्ति है 'आणाए धम्मो' अथवा आज्ञा में धर्म है के प्रति बाद में आदर भी समाप्त हो जाता है।
निर्मूल धर्म निरपेक्षता अथवा मनुष्य और राज्य की पूजा जिसमें धार्मिक भावना का हल्का सा पुट दे दिया गया है, आधुनिक युग का धर्म है। धर्म का आधार मानव के सारभूत मूल्य तथा गौरव का उद्घाटन और वास्तविकता के उच्चतर संसार के साथ मानव का संबंध है। इसे धर्म विज्ञान (थियोलोजी) कहना उचित नहीं, बल्कि इसे धर्म का व्यवहार एवं अनुशासन कहना होगा। धर्म आत्मा की पीड़ा को दूर करने वाली एक मात्र औषधि है। जब मानव धर्म के स्रोतों और शर्तों की अवज्ञा करता है तब वह उन्मत्त, आत्मघाती तथा चरित्रहीन हो जाता है। मानव और समाज के बीच लुप्त हो गए संबंध को पुनः स्थापित करना ही धर्म का लक्ष्य होना चाहिए। सच पूछे तो धर्म का सार
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