Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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विभिन्न धर्मग्रंथों, वादों-विचारों में चरित्र निर्माण की अवधारणाएँ
आवश्यक है। ये दो पहिये हैं सत्य और अहिंसा के। यह शाश्वत सिद्धान्त है तथा आधुनिक युग के वैज्ञानिक वातावरण में भी अहिंसा को मानव जाति की तथा सारे संसार की हितकारिणी मान लिया गया है। हिंसा से मुक्त होने के लिये अहिंसा का आह्वान जरूरी है। अहिंसा भारत के स्वाधीनता संघर्ष काल की तरह सार्वजनिक जीवन में भी ओतप्रोत हो और उसके आधार पर एक नई सर्वसहयोगी जीवनशैली का विकास हो-आज सारे-संसार के कदम इस दिशा में बढ़ने शुरू हो गये हैं। वैरवैमनस्य, द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या-डाह, दुःसंकल्प, क्रोध, दुर्वचन, अभिमान, दंभ, लोभ-लालच, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाज की चरित्र विनाशिनी ध्वंसमूलक विकृतियां हैं-ये सब हिंसा के ही रूप हैं। मानव मन और चरित्र इस हिंसा के विविध प्रहारों से निरन्तर आहत होता रहता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि मानव सम्यग् ज्ञान के अभाव में वैर का प्रतिकार वैर से, दमन का प्रतिकार दमन से अथवा हिंसा का प्रतिकार हिंसा से करना चाहता रहा है बल्कि करता रहा है और यही घोर अज्ञान है। भगवान् महावीर ने इस अज्ञान को दूर किया और उत्तम चरित्र पथ दर्शाया-"क्रोध को क्रोध से नहीं, क्षमा से जीतो। अहंकार को अहंकार से नहीं, विनय एवं नम्रता से जीतो।दंभ को दंभ से नहीं, सरलता और निश्छलता से जीतो।लोभ को लोभ से नहीं, सन्तोष व उदारता से जीतो। इसी प्रकार भय को अभय से और घृणा को प्रेम से जीतो।" विजय की यही सात्विक प्रक्रिया है तथा ऐसे अभ्यास से ही अहिंसक जीवनशैली का निर्माण किया जा सकता है। ____ अहिंसा की इस अन्तर्दृष्टि को गहराई से समझें और अपने आचरण में आत्मसात् करें। वैर हो, घृणा हो, शोषण, दमन, उत्पीड़न हो या कोई भी हिंसक कार्य हो, अंततः सब लौट कर पुनः कर्ता के पास ही आते हैं । यह मत समझो कि जहां पर आपने बुराई फैकी है, वह वही पर रहेगी और आपके पास लौटकर नहीं आएगी। यह विभ्रम है। वह बुराई निश्चित रूप से अपना दुष्परिणाम लेकर आपके पास लौटेगी, क्योंकि कृत कर्म (शुभ या अशुभ दोनों) कभी निष्फल नहीं जाता। कुएं में की गई ध्वनि वापिस अवश्यमेव लौटती है, प्रतिध्वनि के रूप में तो अहिंसा की सूक्ष्म दृष्टि यह है कि तू पीड़ा देने वाला और वह जो तुमसे पीड़ा पा रहा है, दोनों भिन्न-भिन्न नहीं हैं। वह भी चैतन्य है और तू भी चैतन्य है। यदि तू दूसरे को सताता है तो वह दूसरे को सताना कैसे हुआ? वह तो तू अपने आप को ही सता रहा है। यह आध्यात्मिक ध्वनि है कि जिसे तू मारना चाहता है, वह तूही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। अहिंसा का यह स्वर सबकी शान्ति और सुख का स्वर है तथा चरित्र रूपी रथ का एक सुदृढ़ पहिया है। ___ चरित्र रथ का दूसरा सुदृढ़ तथा समतोल पहिया है-सत्य दर्शन की अभिलाषा। जीवन के व्यवहार में जहां-जहां सत्यांश मिलें उनका चयन करना, संचय करना तथा पूर्ण सत्य के साक्षात्कार की सदा अभिलाषा एवं चेष्टा रखना-यह चरित्र निर्माण की सक्रियता रहनी चाहिए। श्रुत और दृष्टदोनों सत्य के स्रोत होते हैं और इनमें भी श्रुत की अपेक्षा दृष्ट का अधिक महत्त्व है क्योंकि इससे जो ज्ञान प्राप्त होता है वह गहरा और स्थाई होता है। श्रुत से चिन्तन की धारा चलती है और दृष्ट से विविध अनुभव प्राप्त होते हैं अतः यह प्रक्रिया सत्य के समीप ले जाती है, उसकी उज्ज्वलता को निखारती है तथा सत्यदर्शन के प्रति प्रबल प्रभाव उत्पन्न करती है।
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