Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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विभिन्न धर्मग्रंथों, वादों-विचारों में चरित्र निर्माण की अवधारणाएँ
प्रधान धर्म ग्रंथ 'अवेस्ता' में सात सिद्धान्तों का उल्लेख है-1. शुद्ध व स्पष्ट मन-मानस (वाहुमान), 2. उच्च कोटि की पवित्रता (आसा बहिस्ता), 3. शक्ति सम्पादन (क्षत्रावर), 4.प्रेम (स्पेंडार), 5.स्वास्थ्य (होरवता).6. अमरता (अमेरेतेड).7.प्रतीक अग्नि। चरित्र निर्माण एवं विकास की अवस्था में इन सिद्धान्तों का आचरण शक्य बनता है। धर्म का मूलाधार अन्तर्बाह्य पवित्रता को
माना गया है। अग्नि इसका प्रतीक है। 3. चरित्र ही धर्म है (चरित्तो धम्मो) : जैन धर्म ने सर्वाधिक बल सम्यक् चारित्र (राइट कंडक्स)
पर दिया है। सम्यग् ज्ञान (राइट नोलेज) तथा सम्यग् दर्शन (राइट फेथ) का सम्पादन सम्यक् चारित्र की साधना से पूर्व हो जाना चाहिए। सर्व बन्धन मुक्ति के लिये इस साधना को 'रत्न त्रय' का नाम दिया गया है-सही करो के साथ सही जानो और सही मानो। जैन धर्म की समस्त शिक्षाओं का सार यदि एक वाक्य में बताना हो तो वह होगा कि ज्ञानी होने का सार यही है-किसी भी प्राणी की हिंसा न करें-अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है-बस इतनी सी बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये (एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणः अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया-सूत्र कृतांग 1-1-4-10)। इस प्रकार जैन धर्म का मूल लक्ष्य है शान्ति जिसे स्थान देना है मानव और मानव के बीच. मानव और प्रत्येक प्राणी के बीच तथा सर्वत्र। इतना ही नहीं, सर्वजीव भूत आदि के साथ पूर्ण सौहार्द्र भी स्थापित किया जाना चाहिए। आचारांग सूत्र में ऐसी सुघड़ आचार विधि का उल्लेख है, जो अद्वितीय है। इस प्रकार मुक्ति का मूलाधार
चरित्र निर्माण एवं उसके उच्चतम विकास को माना गया है। 4. चरित्रहीनता को प्रोत्साहित करते हैं ये मुख्य दुर्गुण : बौद्ध धर्म में चार आर्य सत्य-1. जन्म से,
रोग से, मृत्यु से, घृणा योग्य वस्तुओं के साथ से तथा प्रियकारी वस्तुओं के विलग होने से उत्पन्न होने वाले दुःख-कष्ट, 2. उनकी मौजूदगी (दुःख समुदय) तथा 3. उनका अन्त (दुःख निरोध) व 4. प्रतिपत्ति को प्रमुखता मिली है। कष्टों के कारणों का उल्लेख है-1. अविद्या-अज्ञान, 2. संस्कार, 3. चेतना, 4. नाम व रूप, 5. छः दृष्टि शक्ति, 6. संसर्ग, 7. रोमांच, 8. इच्छा तथा 9. राग, जो दुर्गुण चरित्रहीनता के प्रतीक हैं । शान्ति और सम्बोधि पाने की दृष्टि से अष्ट मार्ग सुझाया गया है-1. सही आस्था (फ्रेथ), 2. सही महत्त्वाकांक्षा (एस्पिरेशन), 3. सही वाणी (स्पीच),4. सही चरित्र (कंडक्ट), 5. सही निर्वाह (लाइव्लीहुड), 6. सही उपक्रम (एंडेक्ट),7. सही स्मृति (मेमोरी) तथा 8. सही ध्यान (मेडीटेशन)। एक निश्चित आचरण विधि का भी निर्धारण हुआ है जो सात कक्षाओं (सेविन क्लासेस) के नाम से जानी जाती है। प्रमुख बौद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' का कथन हैयह केवल आज की ही बात नहीं, पुराना रिवाज है कि वे उन लोगों पर दोषारोपण करते हैं, जो शान्त रहते हैं, वे उन लोगों पर भी दोषारोपण करते हैं जो बहुत बोलते हैं और वे उन लोगों पर भी दोषारोपण करते हैं जो नपे तुल शब्दों में बोलते हैं। संसार में कोई नहीं है जो दोषारोपित नहीं किया जाता हो। ऐसा व्यक्ति भी कभी न था, न होगा और न अभी है जो पूरी तरह से दोषारोपित हो। अथवा पूरी तरह से प्रशंसित। परन्तु दिन प्रतिदिन निरीक्षण करने के बाद बुद्धिमान उस व्यक्ति की सराहना करते हैं जिसका चरित्र निष्कलंक है, कुशल है तथा ज्ञान व गुणों से सम्पन्न है।
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