Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सृजनशील
व्यक्ति निष्प्राण हुआ । यह एक निश्चित तथ्य है कि जीवन की समस्याएँ व्यक्ति अकेला रह कर हल नहीं कर सकता, उसे समूह, संघ, समाज आदि के साथ रहकर ही जीवन को सक्रिय तथा सजीव बनाये रखना होता है। कोई भी संगठन गणित की एक इकाई होता है। एक के अंक के आगे धन का चिन्ह लगा कर फिर एक का अंक लिखे तो उसका जोड़ होगा दो मात्र । यह व्यक्ति का गणित है। समाज के गणित में व्यक्ति व्यक्ति के बीच अन्तर नहीं रखा जाता सो एक के अंक के आगे बिना किसी चिह्न या अन्तर के एक का अंक लिखिये तो वह बनेगा ग्यारह का अंक। दो और ग्यारह का भेद होता है व्यक्ति तथा समाज की गणित में। जीवन में गणित के इस सिद्धांत को लागू करने की जरूरत है। सभी प्रकार के संगठनों में यह सिद्धांत अवश्यमेव फलदायी होगा।
परिवार हो, समाज हो, धर्म संघ हो, राष्ट्र हो या समस्त विश्व- समस्याएँ सब ठौर हैं । कारण, सब ठौर मानवीय दुर्बलताएँ मौजूद हैं। सभी इन दुर्बलताओं को बढ़ावा देना नहीं चाहते, उनका शीघ्र और समुचित हल निकालना चाहते हैं। सवाल है कि उनका हल कैसे निकाला जाए? इस हल लिये एक दूसरे के साथ नफरत ठीक नहीं, शोरगुल और थोथी घोषणाएँ भी व्यर्थ हैं और दल-सम्प्रदाय आदि का परिवर्तन भी उपयोगी नहीं। इसके लिये चाहिये सद्भाव, सहिष्णुता और सहयोग जो धीरेधीरे समभाव या समता में बदलता जाए। इसके लिए अपने ही स्वार्थ साधन से दूर एक-दूसरे के लिये त्याग की वृत्ति भी अपनानी होगी और यह सारा विकास सामाजिकता को सुदृढ़ बना कर ही किया जा सकता है ।
व्यक्ति कर्म और सामाष्टिक कर्मः कर्म का सर्व सम्बद्ध स्वरूप
समाज में व्यक्ति निजी हैसियत से भी कार्य करता है और सामूहिक हैसियत अर्थात् किसी भी संगठन के क्रियाशील सदस्य के रूप में भी कार्य करता है, जिन्हें क्रमशः नाम दिये जा सकते हैंव्यष्टि कर्म तथा समष्टि कर्म । यह देखने की बात है कि क्या व्यष्टि कर्म नितान्त व्यष्टि का ही होता है अथवा समष्टि से भी प्रभावित ? देखा या सुना जाता है कि हवाई जहाज में आग लग गई और उसके सारे के सारे यात्री मारे गये। उनके किस कर्म के परिणामस्वरूप सबको एक साथ एक-सी मौत मरना पड़ा। इसे सामुदायिक (समदानी ) कर्म कहा गया है। समुदाय ने बांधे और समुदाय भुगतें। किन्तु स्थिति यही सामने आती है कि व्यष्टि के अधिकांश कर्म समष्टि से प्रभावित रहते हैं । समझिए कि एक व्यक्ति ने एक यात्री की जेब काट ली। उसे पैसे की सख्त जरूरत थी अपनी मरती हुई माँ के ईलाज के लिये । जेब काटना फिर भी अपराध तो है और पाप कर्म भी है। क्या उसके इस पाप कार्य में समाज भी भागीदार नहीं है ? समाज में फैली घातक विषमताओं को मिटाना पूरे समाज की जिम्मेदारी है। समाज की इस तरह गैर जिम्मेदारी रही कि वह व्यक्ति इतना गरीब रहा कि अपनी जन्मदायिनी माँ का ईलाज तक कराने में अक्षम था। इस दृष्टि से देखें तो कर्म का फल तथा व्यक्ति का महत्त्व गुणानुगुणित हो जाता है। समष्टि का संदर्भ मिल जाने से व्यष्टि के पाप कर्म का आकार भी बड़ा हो जाता है।
अब तक विस्तार तथा प्रतिष्ठा पाए सामाजिक विचार ने स्पष्ट कर दिया है कि अपनी गरीबी के लिये गरीब ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि अमीर अधिक जिम्मेदार माना जाता है। यह विचार लोगों की
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