Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानव चरित्रशील बनेगा तो समग्र समाज सृजनशील
अलग रह कर न अपना विकास कर सकता है और न ही समाज व्यक्ति विहीन होकर अपने अस्तित्व तक को बचा सकता है। व्यक्ति का विकास अपने साथियों के सहयोग पर आश्रित होता हैबिना किसी के सहयोग के व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता है। व्यक्ति अपने जीवन निर्वाह तथा विकास के लिये समूहबद्ध हुआ और उसने उसी प्रयोजन से अनेक प्रकार के संगठनों की रचना की। इन्हीं संगठनों में सबसे पहले परिवार का संगठन बना और इस परिवारों के संगठन ने ही समाज का स्वरूप ग्रहण किया। समाज की व्याख्या इस दृष्टि से यही होगी वह वह समाजों का समाज है। किसी भी जागरूक समाज का सबसे बड़ा दायित्व व्यक्ति के शुद्ध चरित्र निर्माण का रहा है और है। वस्तुतः जो समाज चरित्रमय व्यक्तित्व के निर्माण में चिन्तनशील, जागरूक और सक्रिय नहीं, उसे समाज का नाम देना भी न्यायसंगत नहीं । आपसी समझ, परस्पर प्रेम व सहयोग से ही समाज का स्वरूप शुद्ध और भव्य बनता है। समझ के अभाव में मनुष्यों के समूह और को पशुओं के समूह में कोई भेद नहीं रह जाता है। इस समूह की भेद रेखा ही होती है जो मनुष्य मनुष्य अथवा पशु की संज्ञा देती है। ऐसी समझ का पैदा होना और पनपना चरित्र निर्माण तथा उसके विकास पर ही आधारित रहता है ।
जिस समाज में चरित्र गठन को सर्वोच्च महत्त्व दिया जाता है, वह समाज किसी भी क्षेत्र में कभी पिछड़ नहीं सकता है। उसका प्रभाव और वर्चस्व सदा बना रहता और वैसा समाज ही जागृत, उन्नत और समृद्ध समाज कहलाता है। सामाजिक गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने के उद्देश्य से प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्त्ता का कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने ज्ञान, विवेक तथा आचरण को जागृत रखकर ऐसा कोई कार्य न करे जिससे उस के सामाजिक जीवन की शुद्धता में प्रश्न चिह्न लगे। उसे अपने तथा समाज के हिताहित का सतत चिन्तन करते रहना चाहिये, क्योंकि व्यक्ति के आचार-विचार की शुद्धता या अशुद्धता का प्रभाव उसके परिपार्श्व में पड़े बिना नहीं रहता ।
चरित्र निर्माण के माध्यम से व्यक्ति-सुधार का प्रयोग ही एक दिन सामूहिक सुधार का आधार बन सकता है। व्यक्ति न सुधरे तो समाज के सुधार की आशा कैसे की जा सकती है? समाज की इकाई व्यक्ति है, अत: प्रत्येक व्यक्ति का यह पुनीत कर्त्तव्य तथा महत्त्वपूर्ण दायित्व बन जाता है कि वह शुभ संकल्प, पूर्णनिष्ठा एवं समर्पण के साथ स्वयं के सुधार का मानस बनावे और चरित्र निर्माण हेतु तत्पर बने ।
चरित्र निर्माण के महद् अभियान में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका से नकारा नहीं जा सकता है। आखिर वे भी तो समाज का आधा अंग हैं और इस नजरिए से वे भी पुरुष के समान ही स्थान तथा सम्मान की अधिकारिणी हैं तो कर्त्तव्य निर्वाह के कार्य में भला उन्हें पीछे कैसे छोड़ सकते हैं? जिस परिवार और समाज में नारी प्रबुद्ध एवं विवेकवान होती है, वहाँ वह पुरुष को भी उन्मार्गगामी नहीं बनने देती हैं। नारी की चारित्रिक महत्ता का प्रभाव समूचे परिवार पर पड़े बिना नहीं रह सकता है । नारी की सत्य निष्ठा का, चारित्रिक शुद्धता का, कथनी-करनी की समानता का, उनकी संतोषवृत्ति, सादगी तथा सहिष्णुता का जिस परिवार व समाज पर अमिट प्रभाव अंकित रहता है वह परिवार व समाज खंडित नहीं होता- सदा अखंड रहता है। समय और परिस्थितियों के झंझावात भी उस प्रभाव
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