Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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संसार व समाज के कुशल प्रबंधन का एक ही आधार चरित्र
स्थापना हुई। कुशल प्रबंधन का ही सुपरिणाम रहा कि टूटते-टूटते भी उस आदर्श जीवन शैली के कई तत्त्व वर्तमान जीवन शैली में भी विद्यमान हैं।
तत्कालीन कुशल प्रबंधन के तीन सूत्र जनता को सिखाए गए और उन तीन सूत्रों में संसार व संसार के समग्र कुशल प्रबंधन का रहस्य समाया हुआ था। वे तीन सूत्र थे
(1) असि-इस शब्द का अर्थ होता है तलवार अर्थात् समाज का एक वर्ग असिधारी बनाया गया। यह तलवार सार्वजनिक रक्षा के लिए थी। जो शारीरिक तथा मानसिक स्थितियों से साहसी, त्यागी और सर्व जन सहयोगी थे, उन का एक वर्ग बनाया गया। उसे संसार व समाज की सुरक्षा का भार सौंपा गया। उनका कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे अपने प्राणों की बलि देकर भी जन जीवन की रक्षा करें।
(2) मसि-इस शब्द का अर्थ होता है स्याही अर्थात् लिखने का साधन । स्याही का कार्य उन लोगों के वर्ग को सौंपा गया जो जन-जन के आध्यात्मिक, नैतिक तथा लौकिक जीवन के उत्थान में रुचि रखते थे। इस वर्ग ने एक ओर विचार व आचार को स्वस्थ रूप देने के लिए उपयुक्त साहित्य लिखा तो जीवन सधार सम्बन्धी शिक्षण-प्रशिक्षण का क्रम बनाया ताकि अगली पीढी में ससंस्कारों की स्थापना की जा सके। दूसरी ओर हिसाब किताब रखने की विधियाँ विकसित की गई तथा व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन दिया गया।
(3) कृषि-इस शब्द का अर्थ है खेती। उस समय में उपजाऊ धरती तथा जल संसाधन का बाहुल्य था। अतः कृषि उत्पादों पर टिकी आजीविका ही प्रमुख बनी। जिन लोगों की असि या मसि के क्षेत्रों में या तो रुचि नहीं थी या क्षमता नहीं थी, वे सभी लोग इस कार्य में जुट गए जिसके कारण संसार व समाज में धान्य आदि की बहुलता हो गई। जब समाज इस रूप में सम्पन्न हो जाता है तब उसमें संघर्ष का नामोनिशान नहीं बचता है।
उस समय में ऐसा कुशल प्रबंधन कैसे हुआ और क्योंकर सभी लोगों ने उसे मान्य किया? यह गंभीरता से सोचने का विषय है। पहले भी किसी प्रकार के प्रबंधन से हीन युगलिया समाज था और जब अभाव की स्थितियाँ सामने आई तो भगवान् ऋषभदेव का शासक के रूप में तुरन्त सर्वांगीण प्रबंधन का क्रम शुरू हो गया। संघर्ष का क्रम गहरा हुआ उससे पहले ही सुव्यवस्था का स्वरूप कार्यान्वित कर दिया गया तो वह संघर्ष विकृत न हो पाया। इससे उनकी चारित्रिक क्षमता का तनिक भी क्षरण नहीं हुआ। उन्हें नेतृत्व मिला ऐसे युग पुरुष का जो स्वयं चरित्र के प्रकाश स्तंभ थे, तब जन-जन में न तो चारित्रक पतन का अवसर था और न ही अर्जन के तथा अन्य क्षेत्रों में अभाव अथवा असन्तोष का। प्रबंधन कुशलता का परिणाम इस प्रकार निकले कि आम लोगों में न असन्तोष पनपे और न उनके चरित्र पर आघात लगे तभी उस कुशलता को सफलता का श्रेय मिलता है।
जब स्वच्छ और सात्विक प्रबंधन जनता को मिलता है तथा जनता में समझ व विवेक पर्याप्त होता है तब उस प्रबंधन को सब की मान्यता मिलने में कोई बाधा नहीं रहती है। मान्य प्रबंधन को पूरा जन सहयोग भी मिलता है। जब जनता के और राज्य के प्रयास संयुक्त हो जाए तो उस कार्य की
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