Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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वर्तमान वैज्ञानिक अथवा विचारक इतने जड़ग्रस्त हो गए हैं कि उनके लिए पदार्थ (मेटर) का तो मतलब है लेकिन चेतना शक्ति ( लाईफ) उनकी विचार सीमा में नहीं आती। क्या इस विचारणा का भयंकर दुष्परिणाम आज हमारे सामने नहीं है? भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुए आधी शताब्दी से अधिक का समय हो गया है। अब तक बाहरी निर्माण आदि विकास के कार्य हुए होंगे लेकिन मानव का निर्माण नहीं हुआ और उससे सर्वत्र मानवता का ह्रास ही हुआ है। ऐसे निर्माण को क्या कुशल प्रबंधन कहा जा सकता है? आधुनिक प्रबंधन की विचारधारा में भी इसी मानवीय तत्त्व का अभाव है। सब कुछ पदार्थ तथा हानि-लाभ की दृष्टि पर आयोजित किया जाता है तो इसकी सफलता भी संदिग्ध ही रहेगी। इसका मुख्य कारण है वांछित चरित्र का अभाव। प्रबंधन कार्य में यदि चरित्र नहीं तो समझिए कि भावना भी नहीं, कोरी तकनीक रहती है। भावना नहीं तो संवेदना नहीं और संवेदना नहीं तो चेतना शक्ति का प्रभाव कहाँ तथा मानवता का विकास कहां?
अत: प्रबंधन के विशेषज्ञों को सभी तथ्यों का विश्लेषण करना चाहिए कि क्या सिर्फ व्यावसायिक विचार से संसार तथा समाज का सच्चा विकास हो सकेगा एवं मानवता का प्रतिमान बढ़ सकेगा? क्या प्रबंधन की सफलता और स्वावलम्बन की पृष्ठभूमि बिना चरित्र गठन एवं भावनात्मकता से ही साधी जा सकेगी? चेतन तत्त्व की भूमिका से आँखें नहीं मूँदी जा सकती है। भारत में अब तक उस चेतन तत्त्व का विकास न होने से क्या दूसरा समूचा विकास निरर्थक जैसा नहीं है ? मानवीय तथा नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं प्रगति नहीं बनी तो सारा भौतिक विकास भ्रष्टाचारिता अथवा अपराध वृत्ति ही निगल गई है और विकास का सच्चा हकदार आम नागरिक तो आज भी नंगा और भूखा है। इस परिणाम से शिक्षा लेने की नितान्त आवश्यकता है कि पहले मानव का विकास हो और फिर पदार्थ का । मानव का चरित्र विकास हो जाने पर न विकार घर करेंगे और न भ्रष्टाचार सारी योजनाओं का सत्यानाश करेगा। तब पदार्थ का विकास सुरक्षित हो जाएगा और उसका सबके बीच समान रूप से वितरण भी, तब संविभाग ही प्रबंधन का मूल मंत्र होगा क्योंकि संविभाग स्वावलम्बन के धरातल पर ही पल्लवित एवं पुष्पित होता है ।
इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि कुशल प्रबंधन के लिए व्यावसायिकता से भी पहले भावनात्मकता की आवश्यकता है, क्योंकि मानवीय संवेदना से रहित कोई भी प्रबंधन जन कल्याणकारी नहीं हो सकता है। यह सत्य भी सदा याद रखा जाना चाहिए कि मानवता सभी कार्यों, व्यवस्थाओं अथवा प्रबंधनों के केन्द्र में सदा रहनी चाहिए। सारे विकास कार्य, सारी व्यवस्थाएँ, सारे प्रबंधन या समूचा शासन मानव के लिए होता है जिसका सीधा-सादा अर्थ है कि मानव इनके लिए नहीं है अतः इन सबका संचालन मानव को केन्द्र में रखकर उसके हित तथा विकास की दृष्टि में किया जाना चाहिए। जहाँ मानवता को प्राथमिकता है वहाँ मानवीय मूल्यों का सर्वोच्च सम्मान है तथा जहाँ मानवीय मूल्य मुख्य हैं, वहाँ चरित्र निर्माण का सम्मान सर्वोपरि है जहाँ प्रबंधन कुशलता भी दलित, पतित तथा उत्पीड़ित मानव समुदाय की उन्नति को साधने वाली होती है। इस दृष्टि से प्रबंधन को केवल तकनीक कहना उचित नहीं, उसे जीवन शैली का आवश्यक अंग मानना तथा बनाना होगा। मानवीय मूल्यों से वंचित रखकर किसी भी प्रबंधन को सर्व जन हितकारी नहीं बनाया