Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
समाप्त किया जाए और दूसरे समाप्त की गई व्यवस्था के स्थान पर नई सर्वहितैषी व्यवस्था स्थापित की जाए। पहले चरण को विनाशात्मक या नकारात्मक (निगेटिव) कहेंगे तो दूसरे को सर्जनात्मक या सकारात्मक (पोजिटिव) चरण। समाज में जब बड़े पैमाने पर परिवर्तन की धुरी घुमानी हो तब दोनों चरण क्रमिक रूप से साथ-साथ चलाए जा सकते हैं।
आज हमारे सामने केवल किन्हीं एक या दो लोगों में ही बदलाव लाने की समस्या नहीं है, बल्कि यह बदलाव बड़े पैमाने पर पूरे जीवन में लाने की आवश्यकता आन पड़ी है। क्योंकि समूची व्यवस्था शोषण, दमन, अन्याय और अत्याचार पर आधारित हो गई है जिसका अधिकांशतः संचालन चरित्रहीनता तथा अनुशासनहीनता की स्वार्थी शक्तियों के हाथों में चला गया है। इन शक्तियों को परास्त करने एवं दलित व्यवस्था को खत्म करने की पहली जरूरत है। उसके साथ ही या बाद में नवनिर्माण का दौर चलाना होगा ताकि समाज का एक बदला हआ आकार सामने आवे और उसे स्थिरता तथा हितावहता में ढालने के लिये सतत प्रयास जारी रहें।
सार रूप में यह वर्तमान समस्या है तो चरित्र निर्माण इस समस्या का तात्कालिक समाधान भी है और चरित्रबल इसका स्थाई समाधान निकालने हेतु प्रयासरत रखा जा सकता है। वास्तव में चरित्र का यही प्रमुख लक्ष्य भी है। चरित्र उज्ज्वलता का प्रतीक होता है और उसे कहीं भी मलिनता अपितु शिथिलता भी सह्य नहीं होती है। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में ही लक्ष्य स्पष्ट होने लगता है कि सच्चरित्रता से समाज में फैली हुई विकृतियों को दूर किया जाए तथा सब लोगों में समता पूर्ण भावों एवं उनके व्यवहार को प्रबल बनाया जाए।
समता दर्शन प्रणेता स्व. आचार्य नानेश ने न केवल समत्व भाव, समता तथा समता समाज की रचना पर अविरल प्रवचन धारा प्रवाहित की अपितु इस दिशा में व्यावहारिक एवं रचनात्मक कार्यक्रमों को भी प्रोत्साहन दिया। समाज में फैली विकृतियों एवं विषमताओं को समाप्त करने के आह्वान के साथ आचार्य श्री ने इन्दौर चातुर्मास के अपने एक प्रवचन में समता के आदर्श की पुर्नप्रतिष्ठा पर बल देते हुए उपदेशित किया- व्यक्तियों की जागृति में शिथिलता अर्थात् चरित्र में दुर्बलता से सामाजिक रीतियों के पालन में शिथिलता आई तो उस शिथिलता ने सामाजिक नियंत्रण तथा सावधानी को कमजोर बनाया। तब व्यक्तियों के मन में कर्त्तव्य भावना के स्थान पर अकर्तव्य की सुषुप्ति पनपने लगी और असावधानी से किसी में भी विकृतियों का पैदा होना और पनपना स्वाभाविक होता है। प्रचलित रीतियों में इसी प्रकार विकृतियां समा गई और रीतियाँ-कुरीतियाँ बन गई। यह भी मुख्य कारण रहा कि मनुष्य की स्वार्थपरता हीन भावना और कुत्सित कार्य प्रणाली ने रीतियों में नाना प्रकार की विकृतियों का विस्तार किया। ... इन्हीं रीतियों में जब तरह-तरह की इतनी
और ऐसी विकृतियाँ समाती जाती हैं, जो समाज के बहु-संख्यक भाग के लिये कष्टकर और पीड़ादायक बन जाती है। तब अधिकांश प्रबुद्ध लोगों का ध्यान उस ओर जाता है कि वे रीतियाँ सारे समाज में संत्रास फैला रही है और कैसे उसका निवारण किया जाए? यों कहें कि रीतियों में जब विकृति की अति होने लगती है, तब उनके विरुद्ध प्रतिरोध की जागृति भी उत्पन्न होती है और एक प्रबल इच्छा शक्ति जागती है कि उन रीतियों के मल्यों में क्रान्ति की जाए। ...मनष्य की चेतना और
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