Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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विविधता में भी चरित्र की आत्मा एक और उसका लक्ष्य भी एक
जागृति सदा शिथिल एवं सुषुप्त नहीं बनी रहती है और विकृतियों की अति को देखकर उस चेतना में जागृति का एक नया दौर आ जाता है। वर्तमान समय को बारीकी से देखें तो आपको प्रतीत होगा कि समाज में प्रचलित सभी कुरीतियों के विरुद्ध इस समय में प्रबल विरोध जागृत है। आवश्यकता है प्रतिरोध को सही दिशा देने की और उसके बाद रीतियों में शुभ भावनाओं की नई प्राण प्रतिष्ठा करने की। इस ओर समाज का रचनात्मक दृष्टिकोण बनना चाहिये। ... सम्पूर्ण मानव जाति की दयनीय स्थिति मिटाने का एक ही मार्ग है और वह है समता का आदर्श। इस आदर्श को उपस्थित करने के लिये व्यर्थ के भार स्वरूप रीति-रिवाजों को छोडकर परिवार, समाज, राष्ट्र के समचित विकास के लिये आवश्यक है। रीति-रिवाजों के संदर्भ में समता का आदर्श यही कहता है कि समाज में सबको उनके पालन की समान रुचि हो तथा उनका प्रभाव सब पर समान रूप से सुखकारी भी हो। ... समता का आदर्श ही वह संजीवनी औषधि है जो आज के पतनशील परिवार, समाज और राष्ट्र में नव-जीवन फूंक सकती है तथा प्रगतिशील आधारों पर इन ईकाईयों का नव निर्माण किया जा सकता है। व्यक्ति-व्यक्ति के अन्तःकरण में समता का आदर्श जागना चाहिये तभी उसकी सामूहिक विकासशीलता सभी सार्वजनिक क्षेत्रों में मुखरित हो सकेगी। (संस्कार क्रान्ति, पृष्ठ 251-54)।
वस्तुतः चरित्र निर्माण का लक्ष्य यही है कि सर्वत्र विकारों का अन्त हो तथा सबके विचार, वचन तथा व्यवहार में समत्व का ऐसा मधुर रस घुल जाए कि सौहार्द, भ्रातृत्व एवं सहयोग समाज का आधार बन जाएं। सभी आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है (समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइयंआचारांग 1-8-3)। ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें-यह अहिंसामूलक समता ही धर्म का सार है-बस इतनी-सी बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिये (एयं खुनाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणः अहिंसा समय चेव, एतावन्तं वियाणिया- सूत्रकृतांग 1-1-4-10)।समभाव उसी को रह सकता है जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है (सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए णदंसए- सूत्रकृतांग 1-2-2-17)। चरित्र ही ऐसी समता का वाहक बनता है। समता को आरंभ और अन्त की कड़ी बनाओ : सदा सुख पाओ!
समता की भावना होती है, समता की प्रवृत्ति होती है और समता की व्यवस्था भी होती है। कारण, भावना ही भाषण और कर्म में प्रतिफलित होती है। समता की सर्वत्र प्रखरता को समझने के लिए आप इन दो दृश्यों पर दृष्टि डालें, तुलना करें और मानव मन की मूलवृत्ति पर अपना निष्कर्ष निकाले। दृश्य एक- (1) एक गृहस्थ ने चार लोगों को भोजन पर अपने घर आमंत्रित किया और उन्हें एक ही पंक्ति में बिठाया। जब चारों के सामने चार थालियाँ रखी गई तो उसकी दृष्टि अपनी थाली के बाद बाकी की तीन थालियों पर दौड़ी। एक थाली में पाँचों पकवान व दर्जनों व्यंजन, दूसरी में मूंग की दाल का हलवा और दही बड़े, तीसरी में खीर पुड़ी तो चौथी में गुड़ घी का चूरमा। सभी थालियों के व्यंजन सरस और स्वादिष्ट। किन्तु यह क्या? चारों की मुख मुद्राओं पर भिन्न-भिन्न भाव। पहली थाली वाले का माथा घमंड से तना हुआ, दूसरे के चेहरे पर मिश्रित भाव, तीसरे की भृकुटि चढ़ी हुई तो चौथे का मुँह क्रोध से विद्रूप। आप सोचिये कि ऐसा क्यों हुआ? क्या गुड़ घी का चूरमा कडुआ और बेस्वाद होता है? दृश्य दो- (2) एक दूसरे गृहस्थ ने भी खाने पर चार लोगों को बुलाया
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