Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या
गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेशयुक्त होते हैं। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है। (5) यथाख्यात चारित्र - कषाय का तनिक भी उदय नहीं होने से अतिचार रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध शुद्ध स्वरूप वाला चारित्र यथाख्यात चारित्र है। कषाय रहित साधु का यह यथार्थ निरतिचार चारित्र होता है। इस के दो भेद हैं- (अ) छद्मस्थ- ग्यारहवे व बारहवे गुणस्थान में उपशान्त एवं क्षीण मोह रूप चारित्र। (आ) केवली- सयोगी और अयोगी के रूप में इस चारित्र की उपलब्धि तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में होती है। जैन मान्यतानुसार इस पांचवे आरे में पहले के सामायिक और छेदोपस्थापन अर्थात् दो चारित्र ही पाये जाते हैं।
यों चारित्र के अन्यथा दो भेद भी किये हैं- (1.) सर्व विरति चारित्र यानी अनगार (साधु) का चारित्र जिसमें सम्पूर्ण अशुभ कार्यों से पूर्ण विरति ले ली जाती है। (2.) देश विरति चारित्र अशुभ कार्यों की पूर्णरीति से नहीं, आंशिकरूप से निवृत्ति ली जाती है, वह देशविरति चारित्र है। यह अगार अर्थात् श्रावक चारित्र कहलाता है। इस चरित्र में दो प्रकार के गुण होते हैं जो मूल गुण तथा उत्तरगुण नाम से जाने जाते हैं। मूल गुण पूर्णतया पालनीय होते हैं जिनके पालन के बिना चारित्र में पतन की स्थिति उत्पन्न होती है। उत्तर गुणों में उल्लंघन प्रायाश्चित से संशोधित किया जा सकता है। चारित्र की आराधना को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है। कहा गया है कि जो साधक चारित्र गुणों से हीन है, वह बहुत सारे शास्त्र पढ़ लेने के पश्चात् भी संसार समुद्र में डूब जाता है। (चरण गुण विप्पहीणो, बुड्ढई सुबहु पि जाणतो- अभिधान राजेन्द्र कोष 6/442)। यहाँ तक कहा गया है कि शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चरित्रहीन के लिये किस काम का? क्या करोड़ों दीपक जला लेने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है? (सुबहुंपि सुयमहियं,किं काही चरणविप्पहाणस्सः अंधस्स जह पलित्ता, दिवसयसहस्स कोडिवि- आवश्यक नियुक्ति-98)। आत्मा के उच्चतम विकास में ज्ञान सहित चारित्र का महत्त्व है। अन्तर्वृत्ति एवं बाह्य प्रवृत्ति का दर्पण होता है चरित्र
चरित्र ऐसा दर्पण है जिसमें न सिर्फ व्यक्ति की बाह्य प्रवृत्तियों का ही परिचय मिलता है, बल्कि उन बाह्य प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से संचालन करने वाली अन्तर्वृत्तियों का भी स्पष्ट दर्शन हो जाता है। चरित्र सच्चरित्र है अथवा दुष्चरित्र- दोनों ही अवस्थाओं का अन्तवृत्तियों एवं बाह्य प्रवृत्तियों की परख-परीक्षा से स्पष्ट चित्रण प्राप्त हो जाता है। जैसे किसी की आँखों में उसके दिल की झलक देखी जा सकती है, वैसे ही चरित्र के संदर्भ से मनुष्य के जीवन की वास्तविकता का ज्ञान किया जा सकता है। चरित्र निर्माण का अर्थ ही यह है कि व्यक्ति के चरित्र को सच्चरित्रता में रूपांतरित किया जाए। निर्माण की प्रक्रिया में निष्ठा जमती है और बनी रहती है। चरित्र निष्ठा के परिणामस्वरूप मानव
आत्मानुशासन, इन्द्रियों पर संयम, मानसिक सन्तुलन तथा प्रत्येक व प्रतिकूल परिस्थिति में सम बने रहने की कला सीखता है। यह कला ही जीवन की सच्ची कला है जिसके आचरण से जीवन में वास्तविक विकास एवं अनुपम आनन्द के स्थायी स्रोत प्रस्फुटित होते हैं। ___ चरित्र निर्माण की मूल विशेषता होती है कि अशुभ के प्रति ग्लानि, बुराई के प्रति प्रकम्पन एवं दोषों से निवृत्ति प्रभावक बन जाती है। इनके स्थान पर शुभ एवं अच्छाई के प्रति स्वाभाविक आकर्षण
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