Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
अनेकानेक कारण हो सकते हैं जो कषाय और प्रमाद से पैदा होते हैं। फिर भी हिंसा के कारणों के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि प्रमत्त मनुष्य संयोगार्थी एवं अर्थ लोलुप बन कर बारंबार शस्त्र का प्रयोग करता है। वह शरीर बल, जाति बल, मित्र बल, लौकिक बल, देव बल, राज बल, चोर बल, अतिथि बल आदि के साथ भी हिंसा का प्रयोग करता है (आचारांग 1-1-2, 1-6-1)। हिंसा के रूप भी विविध होते हैं षड्जीवकाय की दृष्टि से। हिंसा के चार प्रकार होते हैं-(1) संकल्पी हिंसा, (2) आरंभी हिंसा, (3) उद्योगी हिंसा तथा (4) विरोधी हिंसा। हिंसा के परिणाम के विषय में भी उल्लेख हैं कि संसार के जितने भी दुःख एवं बन्धन हैं, वे सब हिंसा से ही उत्पन्न होते हैं (आरंभजं दुक्खंआचारांग, 1-3-1)। हिंसा को ग्रंथि, बंधन, मृत्यु और नरक कहा है (आचारांग 1-1-2)।
अहिंसा का शब्दशः अर्थ होता है-हिंसा नहीं करना। यह निषेधात्मक है, किन्तु यह इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू है कि विधि रूप और इस प्रकार अहिंसा न एकान्त रूप से निषेध परक या निवृत्तिपरक है और न ही एकान्त रूप से विधिपरक या प्रवृत्तिपरक। प्राणि मात्र को आत्मतुल्य समझना और किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाना, इन दो सूत्रों में अहिंसा का विधेयात्मक तथा निषेधात्मक स्वरूप स्पष्ट है। इसके विधि रूप में सबके प्रति दया, करुणा, मैत्री, रक्षा, सेवा आदि का सन्देश समाविष्ट है तो किसी को किसी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाने के संदेश में सब प्रकार की हिंसा का निषेध है। श्रमण - श्रमणियों द्वारा पालनीय पंच महाव्रतों में अहिंसा पहला महाव्रत है तथा इसका विधि रूप पांच समिति में तथा निषेध रूप तीन गुप्ति में परिलक्षित होता है।
मूल प्रश्न यह उठावें कि अहिंसा का पालन क्यों किया जाए? इसका मनोवैज्ञानिक उत्तर है कि सभी जीव जीना चाहते हैं अतः सभी को अपना जीवन प्रिय है तथा मृत्यु अप्रिय है। प्रत्येक प्राणी के भीतर एक जिजीविषा है, अपना अस्तित्व बनाए रखने की कामना है (सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्ख पडिकूला-आचारांग 1-2-3)। यही जीवनाकांक्षा अहिंसा का मूल है। अहिंसा का अर्थ है कि व्यक्ति अपनी चेतना के समान ही दूसरों की चेतना को समझे। अहिंसा का साधक विश्व की समस्त आत्माओं को समदृष्टि से देखता है और जैसा देखता है, वैसा ही व्यवहार करता है। अहिंसक भयभीत या कायर नहीं होता. उसकी अहिंसा तो भय और प्रलोभन की बाधाओं को चीरती हुई अपने श्रेष्ठतम शौर्य का परिचय देती है। अहिंसा एक आदर्श मात्र नहीं, वह व्यवहार का पुष्ट धरातल है। अहिंसक व्यवहार एक नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रयोग है जिसकी सफलता ही श्रमण
और श्रावक को अपने-अपने क्षेत्र में साधक का दर्जा दिलाती है। सच तो यह है कि अहिंसा की विशद व्याप्ति में शेष चारों व्रतों-सत्य (वैचारिक अहिंसा), अस्तेय (सामाजिक अहिंसा), ब्रह्मचय (पारिवारिक अहिंसा) तथा अपरिग्रह (आर्थिक अहिंसा) का समावेश हो जाता है। हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि यदि अहिंसा जलाशय है तो सत्य, अस्तेय आदि उसकी रक्षक पाल हैं (योगशाला प्रकाश-2)। वस्तुतः इस विराट विश्व में यह अहिंसा ही भगवती है (प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवर द्वार1)। आचार्य समन्तभद्र ने भी अहिंसा की महत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हुए उसे परम ब्रह्म कहा है (नेमिनाथ जिन स्तुति गाथा 119)। इस युग के महान् अहिंसक महात्मा गांधी ने तो अहिंसा को एक स्वयंभू शक्ति बताई है।
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