Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
विविधता में भी चरित्र की आत्मा एक और उसका लक्ष्य भी एक
अहंकार में मदोन्मत्त रहना- फिर भी उसे अपरिग्रही बताना, यह नितान्त मिथ्या है।
नगर में चर्चा के तेवर चढ़ते गये और उसके तीखे स्वरों की भनक भरत चक्रवर्ती को भी लगी । वे निस्सन्देह एक चरित्र सम्पन्न शासक थे अतः अपनी सारी आलोचना पर भी वे उत्तेजित कतई नहीं हुए किन्तु उनके मन में यह विचार अवश्य उमड़ा-घुमड़ा कि उनके निजी चरित्र के विषय में अनर्गल रूप से जो भ्रम फैलाया जा रहा है, उसे निर्मूल करना तो अति आवश्यक ही उन्होंने उस मुखर व्यक्ति को राज्यसभा में बुला भेजा 1
भरत महाराज अपने सिंहासन पर बैठे थे और राज्यसभा के सभी सदस्य भी उपस्थित थे । वह मुखर व्यक्ति भरत महाराज के ठीक सामने खड़ा था- वह मुखर था लेकिन साहसी भी था । भरत ने पूछा- 'तुम्हें मेरे चरित्र में संदेह क्यों हैं?' वह बल देकर बोला- 'मैं नहीं मानता कि अपार राजसुख में रहते हुए कोई सात्विक चरित्रवाला अपरिग्रही हो सकता है।' भरत ने फिर उसे छेड़ा- 'ऐसा भी तो हो सकता है कि उन अपार सुखों के प्रति उसके मन में कोई मूर्छा, आसक्ति या ममत्त्व न हो ।' वह अड़ा रहा- 'नहीं महाराज ! यह असंभव है । '
तब सैनिकों को आदेश दिया गया कि उस व्यक्ति के हाथ में लबालब तेल से भरा एक कटोरा देकर सारे नगर में उसे घुमाया जाए। नगर में स्थान-स्थान पर रमणीय नाटक आदि आयोजित किये जाएं। अन्य कोई भी क्रिया वह व्यक्ति भले करे- बस इतना कड़ा ध्यान रखा जाए कि तेल के कटोरे से अगर एक भी बूंद बाहर झलक जाए तो तत्क्षण तलवार से इसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाए।
आदेशानुसार सैनिक उसे नगर में घुमाने के लिये ले चले। वह मुखर व्यक्ति तब अत्यन्त भयभीत और सावधान कि कहीं तेल की एक बूंद कटोरे से बाहर न झलक जाए। उसका सारा ध्यान केवल कटोरे पर केन्द्रित हो गया। उसके पांव चल रहे थे- इसके सिवाय उसे कुछ नहीं मालूम हुआ कि वह कैसे सारे नगर में घूमकर फिर से राज्यसभा में पहुँच गया है। उसकी दोनों आंखें पूरे नगर भ्रमण में खुली थी, लेकिन सिवाय उस कटोरे के वे अन्य कुछ भी देख नहीं पाई । यहाँ तक कि बूंद गिरने की आहट से कंपित उसके कान भी न गीत-संगीत सुन पाए और न ही नागरिकों के आनन्दित स्वर । उसका सारा ध्यान, सारी शक्ति जैसे उस छोटे से कटोरे में समा गई थी ।
'कहो, नागरिक ! तुम नगर भ्रमण कर आए'- भरत महाराज ने पूछा। हाँ, महाराज! उसका दबादबा जवाब था। फिर पूछा गया- बताओ, नगर की सजावट तुम्हें कैसी लगी? नाटकों के पात्र कैसा मन मोहक अभिनय कर रहे थे? गीत-संगीत की मधुर स्वर-लहरियों ने तो तुम्हें आत्म-विभोर बना दिया होगा। उसे कुछ भी समझ में नहीं आया- न उसने कुछ देखा और न कुछ सुना। अर्थात् उसने कहा- 'यह आप क्या कह हैं, महाराज! कहीं भी कुछ नहीं था।' तब सैनिकों को पुनः आदेश मिला कि अब उसे फिर से खुले हाथ और खुले दिमाग से नगर भ्रमण कराया जाय । वैसा ही किया गया। उसके लौटने पर फिर पूछा गया कि क्या सब दृश्य उसने देखे और श्रव्य सुने। वह पुलकित होकर बोला-'सब कुछ अद्भुत है।'
अब भरत महाराज की बारी थी, कहा- तेल के कटोरे के साथ पहले यह सब कुछ तुम क्यों नहीं देख पाए? नागरिक बोला- मृत्यु के भय से समूचा ध्यान तेल के कटोरे पर केन्द्रित हो गया, अतः
151