Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
तब भी हो सकती है जब पास में भले ही बाह्य परिग्रह कुछ भी न हो। इस वृत्ति को समझने और इससे छुटकारा पाने के लिए अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का विचार बहुत उपयोगी है क्योंकि उसके द्वारा वस्तु के विविध पहलुओं को एक साथ समझते हुए परिग्रह वृत्ति का शमन किया जा सकता है। साथ ही समभाव का विवेक प्रबल रूप धारण करना चाहिए जिससे त्याग भाव जाग्रत हो। समता और त्याग की युति कार्यक्षम होती है। सच्चा त्याग वही माना जाएगा, जो समता से उत्पन्न हो। तभी वृत्तियों के शुद्धिकरण का प्रयास प्रारंभ होता है। सत्य की शोध की ओर भी ध्यान तभी जाता है। सत्य के लिए आग्रह नहीं होना चाहिए और विरोधियों के कथनों में भी सत्यांश खोजा जाना चाहिए-यही अनेकान्तवाद का मंतव्य है। चरित्र की साधना और सत्य की साधना एकरूप हो जानी चाहिए।
इसमें स्वतंत्रता की विचारणा का प्रतिपादन करते हुए स्वतंत्रता तथा स्वच्छंदता के बीच का भेद स्पष्ट किया गया है। स्वच्छंद मानस साधना का विरोधी होता है। जहाँ नियमितता, व्यवस्थितता तथा विवेक बुद्धि होती है, वहीं स्वतंत्रता रहती है और यही विकास का मार्ग है। स्वच्छंदता में विनाश होता है। साधक को स्वतंत्र, दीर्घदर्शी, ज्ञानी, सहिष्णु, पवित्र, उपयोगमय कहा गया है और इन विशेषणों का रहस्य यही है कि उसके जीवन में इन गुणों का विकास होना चाहिए। साधक को बार-बार चेताया गया है कि वह अपनी चैतन्य शक्ति को वासना के दलदल में गिरा कर उसका दुरुपयोग न होने दे। क्योंकि विकृति में शक्ति का सीधा ह्रास होता है। इस दिशा में अल्प एवं नीरस भोजन का भी अमित महत्त्व है। इन्द्रियाँ उत्तेजित न हो तथा संयमित बनी रहे-यह साधक के लिए आवश्यक है। रसमिश्रित वस्तुओं का उपयोग करने से जीवन खाने के लिए हो जाता है, जीवन के लिए खाने की वृत्ति मंद होने लगती है। किसी भी रूप में हो, वासना पतन की जड़ बन जाती है। स्त्री या पुरुष कोई भी नरक का द्वार नहीं है। नरक के द्वार हैं वासना और मोह। मोह विजय ही पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है।
साधक को विभिन्न प्रसंगों के निमित्त से अनुभव का लाभ उठाना चाहिए। अनुभवों के साथ विवेक के प्रयोग से अन्त:करण में समन्वयात्मक क्रिया का क्रम शुरू होता है। जलाशय और महर्षि के दृष्टांतों से बताया गया है कि निश्चित मार्ग के लिए संशय नहीं रहना चाहिए, बल्कि श्रद्धा के साथ साधना में निरत होना चाहिए, क्योंकि श्रद्धा के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता
और चारित्र के बिना समाधि नहीं मिलती। अनुभवी पुरुषों के अनुभव, शास्त्रीय वचन तथा स्वयं की सत्यशोधक बुद्धि इन तीनों का समन्वय करके सत्कार्यों में पुरुषार्थ प्रयोग करना चाहिए। तीनों के समन्वय में श्रद्धा कभी अन्ध श्रद्धा नहीं बन सकेगी।
साधकों को निर्देश दिया गया है कि वे सत्पुरुषों की आज्ञा में चलें। आज्ञा को धर्म की संज्ञा भी दी गई है। उसे आज्ञा का आराधक होना चाहिए, किन्तु गुरु की आज्ञा का अनुसरण करते समय वह सतर्कता आवश्यक है कि कहीं गुरु स्वकीर्ति अथवा मान के विकार से ग्रस्त तो नहीं है। अखंड श्रद्धा का फल अखंड पुरुषार्थ के रूप में प्रकट होना चाहिए। जो अपने मन को वश में रखता है, वही साधक स्वावलंबी बनेगा। कल्पना और अनुभव के अन्तर का आकलन करना चाहिए कि भोग आनन्द का अपहरण करता है, तो संयम सदा आनन्द को समर्पित रहता है। सांसारिकता की आसक्ति को त्याग देने पर संसार का सार प्राप्त हो जाता है। आसक्ति के अधीन रहने से संसार निस्सार होता जाता है।
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