Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन आदि का मूल है ( प्रश्न व्याकरण, संवर द्वार 4 - 1 ) । जिसने अपने जीवन में केवल एक ही व्रत ब्रह्मचर्य की उपासना की है समझिए कि उसने उत्तमोत्तम सभी तपों की आराधना कर ली है। ब्रह्मचर्य स्थिर होने से वीर्य लाभ होता है (योगदर्शन 2-38 ) । ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तप है (सूत्रकृतांग 1-6-23 ) । ब्रह्मचर्य अन्य व्रतों की अपेक्षा दुष्कर है और इस व्रत की आराधना करने वाले ब्रह्मचारी को देव, दानव, गंधर्व सभी नमस्कार करते हैं (उत्तराध्ययन 16/16-17)। इसी प्रकार योगशास्त्र (2-104), ज्ञानार्णव (11-3) अथर्ववेद ( 11-5/1-2-19-24) आदि में भी ब्रह्मचर्य की महत्ता का वर्णन मिलता है । ब्रह्मचर्य व्रत के प्रति पाश्चात्य विद्वान भी आकर्षित हुए हैं। डॉ. फर्नेडो वे ने कहा है कि भगवान महावीर के व्यक्तित्व में सर्व प्रधान गुण मेरी दृष्टि में अनन्तवीर्य रहा है एवं उसी के बल पर ये प्रसिद्ध तीर्थंकर अपने समकालीन प्रवर्त्तकों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते रहे ।
श्रमणाचार की दृष्टि से ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा है - जीवन पर्यन्त के लिए सर्व मैथुन विरमण । इससे सम्बन्धित पांच भावनाएँ - (1) स्त्री कथा का वर्जन, (2) स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के अवलोकन का वर्जन, (3) पुर्वानूभूत काम क्रीड़ा की स्मृति का निषेध, (4) अति मात्रा और प्रणीत पान भोजन का वर्जन तथा (5) स्त्री, पशु आदि से संसक्त शय्यासन का वर्जन । ये सभी काम वासना के हेतु हैं अतः साधु को इनसे बचना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो धर्म से च्युत होता है। ब्रह्मचर्य की सदा रक्षा करनी चाहिए, ये उपाय समाधि के स्थान कहे गए हैं ( आचारांग 2 - 15, स्थानांग - आस्रवद्वार पृष्ठ 42, उत्तराध्ययन 16/ 2-14 ) । ब्रह्मचारी को इन्द्रियजन्य सुखों तथा आनन्ददायक पदार्थों से दूर रहना चाहिए (मनुस्मृति 6-41-49, गौतम सूत्र 3-11)।
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5. अपरिग्रह • संसार के सभी प्राणी सुख प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील हैं, फिर भी क्या कारण है कि सुख नहीं मिल रहा है? यह विचारणीय विषय है कि आखिर दुःख का मूल कहाँ है? गहराई से सोचने पर ज्ञात होगा कि दुःख का मूल परिग्रह ही है। व्यक्ति परिग्रह का संचय करने के लिए हिंसा, झूठ, चोरी आदि के निकृष्टतम कृत्यों को भी करने में हिचकिचाता नहीं है । अर्थलोभी या धनलिप्सु व्यक्ति परिग्रह की पूर्ति हेतु दूसरों का वध करता है, उन्हें कष्ट देता है तथा अनेक प्रकार से यातनाएँ पहुँचाता है। यहाँ तक कि वह धन प्राप्ति के लिए चोर, लुटेरा और हत्यारा भी बन जाता है ( आचारांग 1-3-2)। अतः यह संग्रह वृत्ति सभी पापों की जड़ है। यह परिग्रह संसारवर्ती जीवों के लिए महाभय रूप होता है (आचारांग 5-2 ) । अतः श्रमण को अपरिग्रह व्रत की आराधना करनी चाहिए।
अपरिग्रह का अर्थ है-परिग्रह का त्याग। तो परिग्रह क्या है ? सामान्य रूप से धन सम्पत्ति, सोनाचांदी, धान्य, पशु आदि को परिग्रह कहा जाता है किन्तु परिग्रह की व्याख्या अधिक गहरी है। मूर्छा अर्थात् आसक्ति ही वास्तव में परिग्रह है ( मुच्छा परिग्गहो वुत्तो - दशवैकालिक 6-21 ) । सारी बाह्य सम्पत्ति किसी के पास न हो तो वह मात्र इसी तथ्य से अपरिग्रही नहीं कहा जा सकेगा । बाह्य सम्पत्ति उपलब्ध न होने पर भी यदि परिग्रह के प्रति मूर्छाभाव और आसक्ति है तथा उसकी प्राप्ति के प्रति तृष्णा और लालसा, तो वैसा व्यक्ति परिग्रही ही माना जाएगा। इसी प्रकार बाह्य सम्पत्ति ऋद्धि-सिद्धि सहित होने पर भी यदि व्यक्ति के मन में उसके प्रति तनिक भी मूर्छाभाव या आसक्ति नहीं है तो वह सम्पत्तिवान होते हुए भी अपरिग्रही माना जाएगा। आशय यह है कि परिग्रह का सम्बन्ध पहले भावों