Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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रत्नत्रय का तृतीय रत्न कितना मौलिक, कितना मार्मिक?
' ज्ञान और चरित्र की परस्पर अनिवार्यता
पहले एक प्रतीकात्मक दृष्टान्त लेते हैं। एक वृक्ष के
'नीचे एक अंधा व्यक्ति बैठा हुआ था। उसे यशवंतपुर पहुंचना था, जो वहाँ से करीब दस कोश की दूरी पर था। वहाँ शीघ्रताशीघ्र पहुँचना अति आवश्यक, लेकिन वह क्या करें, कैसे पहुँचे? वह जानता है कि उसके शरीर में बल है और पाँवों में शक्ति, चलने लगे तो हवा से बातें कर सकता है, पर दृष्टि के बिना पांवों की शक्ति किस काम की?
इस अंधे व्यक्ति को चरित्र या चारित्र मान लीजिये, आचार या आचरण कह लीजिये। चारित्र को मोक्ष के द्वार तक पहुँचना है, प्रत्येक विषमता, मलिनता एवं अशुभता से उसे छुटकारा पाना है। परन्तु समस्या वही है कि उसके पास चरण शक्ति है किन्तु ज्ञान दृष्टि नहीं। उसे ज्ञात नहीं कि विषमता कैसी होती है. मलिनता किन-किन क्षेत्रों को विकृत बना देती है अथवा अशुभता का रूप-स्वरूप कितना विशाल और व्यापक हो जाता है अतः इनके छुटकारा पाने के लिये किस प्रकार समता, उज्ज्वलता एवं शुभता से मन मानस को नियमित संयमित एवं शुद्धाचरित बनाया जा सकता है।
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