Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
View full book text
________________
सुचरित्रम्
पहुँचाता है तथा पृथ्वी की भांति सब प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहता है, वह महामुनि 'श्रमण' या श्रेष्ठ श्रमण कहा जाता है (उवेहमाणो कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खा तसथावरादुही: अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहादि से सुस्समणे समाहिए-आचारंग 2/16)। तात्पर्य यह है कि श्रमण तप, त्याग, संयम, परीषह आदि की अग्नि में तप कर अर्थात् स्वयं के कठोर परिश्रम से आत्मा को मुक्त कर 'श्रमण' नाम को सार्थक करता है। __ श्रमण के समग्र आचार को सुव्यवस्थित रूप देने हेतु उसके दो भाग किए जा सकते हैं-(1) सामान्य श्रमणाचार से सम्बन्धित विचार तथा (2) विशेष श्रमणाचार से सम्बन्धित विचार । यों दोनों में कोई भिन्नता नहीं है तथा दोनों का हेतु आत्मशुद्धि ही है।
जो आचार नियम श्रमण-श्रमणी के जीवन में नित्य प्रति आचरणीय होते हैं, वह सामान्य श्रमणाचार है। इसके अन्तर्गत इन पहलुओं का समावेश किया जा सकता है-(1) पांच महाव्रत एवं उनकी पच्चीस भावनाएँ-अहिंसा. सत्य. अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। (2) पांच समितियाँ-ईर्या समिति (उठने बैठने चलने आदि का विवेक) भाषा समिति (भाषा विवेक. असत्य और मिश्र भाषा का त्याग कर सत्य व व्यवहार भाषा का प्रयोग) एषणा समिति (आहार, वस्त्र, पात्र आदि की गवैषण खोज-सदोष आहार न लें) आदान निक्षेपण समिति (उपकरणों, वस्तुओं आदि को उठाने-रखने में सम्यक् प्रवृत्ति व विवेक) परिष्ठापनिका समिति (मल, मूत्र, श्लेष्म आदि का एकान्त, निर्दोष, निरवद्य एवं निर्जीव भूमि में विवेकपूर्वक व्युत्सर्जन)। (3) तीन गुप्ति-मनोगुप्ति (मन की चचलता का गोपन तथा कुत्सित संकल्पों से निवृत्ति) वचन गुप्ति (सदोष वाणी को त्याग वाणी संयम का पालन, वचन विशुद्धि रहे) काय गुप्ति (शारीरिक प्रवृत्तियों की शुद्धि व कायिक संयम) (4) बारह अनुप्रेक्षाएँ या भावनाएँ-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोकस्वरूप, बोधि दुर्लभ एवं धर्म। (5) दस विध मुनि धर्म (नैतिक सद्गुण)-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य। ये पंच महाव्रतों के उपशामक हैं। (6) अवग्रह याचना अर्थात् आज्ञा माँगने सम्बन्धी आचार-आहार, वस्त्र, पात्र, शय्या (पीठ, फलक, उपाश्रयादि) तथा संस्तारक आदि संयम साधना में सहायक उपकरणों के लिए गृहस्थ से आज्ञा का विधान । तृण जैसी तुच्छ वस्तु का आज्ञा से ही ग्रहण होता है। साधु अदत्त पदार्थ ग्रहण नहीं करता। (7) इन्द्रिय निग्रह-रागद्वेष या आसक्तिपूर्वक अच्छे बुरे शब्दों, दृश्यों या इन्द्रिय विषयों के सेवन का प्रयत्न या संकल्प करने का तथा तद् हेतु गमनागमन करने का निषेध ताकि स्वाध्याय ध्यान आदि में विघ्न न आए। (8) पर क्रिया और अन्यान्य क्रिया सम्बन्धी आचार-गृहस्थ द्वारा की जाने वाली सेवा का निषेध । सामान्य स्थिति में साधु-साधु के बीच तथा साध्वी-साध्वी के बीच भी सेवा शुश्रूषा का निषेध। (9) चातुर्मास एवं मासकल्प-चातुर्मास में तथा अन्यथा ठहरने योग्य स्थान आदि का विवरण।
विशेष श्रमणाचार उन नियमों का नाम है जिनका श्रमण-श्रमणी विशेष प्रसंगों पर अपने पूर्वसंचित कर्मों की विशेष रूप से निर्जरा करने के लिए कड़ाई से पालन करते हैं, यथा-कठोरतम तप, ध्यान, समाधि की साधना जो अति कष्टपूर्ण होती है। ये साधनाएँ सामान्य साधक के लिए अति कठिन होती है। विशेष श्रमण ही घोर परीषहों पर विजय पा सकते हैं। इसी प्रकार विशेष अवसरों पर विविध प्रकार
126