Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग
आचार समाधि । आचार समाधि के पालन में ये चार उद्देश्य नहीं होने चाहिए - ( 1 ) इहलौकिक उद्देश्य न हो- सांसारिक स्वार्थ साधना की कामना न रहे। (2) पारलौकिक उद्देश्य भी न हो कि स्वर्ग के भोगोपभोग मिले। (3) कीर्ति, प्रशंसा, प्रसिद्धि या स्तुति प्रशस्ति का भी उद्देश्य न हो तथा (4) वीतराग पद प्राप्ति के उद्देश्य के सिवाय अन्य कोई भी उद्देश्य न हो। ऐसा करने पर ही आचार से सच्ची शान्ति एवं सच्चा सुख प्राप्त होता है। सच कहें तो आचार विज्ञान मानव जीवन के लिए सुखशान्ति का राजमार्ग है ।
मानव जीवन में आचार विज्ञान का क्या मूल्य है तथा उसका अंकन किस रूप में किया जाना चाहिए - इसके लिए विचारणा की गहराई में उतरना चाहिए। आचार तो जीवन में अभिव्यक्त होता है। और वह जीवन के विभिन्न रूपान्तरों में स्पष्ट दिखाई देता है यदि उसे देखने की पारखी दृष्टि हो । आचार तो परम धर्म है और जो धर्म व्यवहार में दिखाई दे, उसे शब्दों में कैसे स्पष्ट किया जा सकता है? जिस प्रकार विज्ञान प्रयोगसिद्ध होता है, वैसे ही आचार भी प्रयोगसिद्ध होता है इसी कारण आचार
विज्ञान बताया गया है। विज्ञान के लिए वर्णन नहीं, प्रयोग ही महत्त्वपूर्ण होता है। शब्द विज्ञान का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते, तदनुसार आचार का भी शाब्दिक मूल्यांकन उपयुक्त नहीं होगा ।
आचार तो जीवन में जिया जाता है जो जन्म से ही प्रारंभ हो जाता है। फिर आचार पग-पग पर सीखा भी जाता है, समझा भी जाता है और अपनाया भी जाता है। आचार किसी एक दर्शन की बपौती नहीं, वह तो प्रत्येक जागरूक व्यक्ति की अन्तरानुभूति में प्रकट होने वाला सामर्थ्य है। आचार जब जीवन में प्रवेश पा लेता है तब जीवन में एक नया आयाम खुल जाता है, एक नवीन अनुभूति अन्तःकरण को स्पर्श करने लगती है। वहाँ शब्द और भाषा दोनों मौन हो जाते हैं और आचरण की वाणी इतनी मुखरित हो उठती है कि उसका सद्प्रभाव सबको नई प्रेरणा देने लगता है। आचार का यही जीवन्त, जागृत तथा शाश्वत स्वरूप है जो सार्वजनीन है, सार्वभौमिक है तथा सार्वकालिक है। विश्व की सभी साधना पद्धतियाँ इस सत्य को स्वीकार करती हैं ।
श्रमणाचार में आचार के उत्कृष्ट स्वरूप का दर्शन होता है!
उत्तर वैदिक काल में दो संस्कृतियाँ अतिविख्यात रही- एक श्रमण संस्कृति और दूसरी माण संस्कृति । इनमें श्रमण संस्कृति आचार-प्रधान संस्कृति रही है। आचार ही श्रमण संस्कृति की मूलभूत आत्मा है और श्रमण संस्कृति का मूल आधार है ' श्रमण' । श्रमण का प्राकृत रूप है 'समण', जिसका अर्थ है श्रम करना अर्थात् अपने ही श्रम द्वारा स्वयं का विकास। मनुष्य अपने उत्कर्ष या अपकर्ष के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जो व्यक्ति स्वयं के श्रम से कर्म बन्धन
तोड़ता है अथवा स्वयं को कर्ममुक्त बनाता है, वह श्रमण है। अपने मोक्ष के लिए श्रमण स्व के अतिरिक्त अन्य किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता। उसका एक मात्र आदर्श होता है - कठोर साधना और श्रम श्रमण की एक शास्त्रीय व्याख्या है कि जो परीषहों को सहता हुआ अथवा मध्यस्थ भाव का अवलम्बन लेता हुआ साधना मार्ग में कुशलजनों के साथ रहता है, जो सभी को सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है - ऐसा समझ कर त्रस या स्थावर किसी भी जीव को परिताप, संक्लेश या पीड़ा नहीं
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