Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरण चमत्कार से हो सकता है कैसा भी जीवन महिमा मंडित
उठकर देवत्व की दिशा में अग्रसर होते रहने की अभिलाषा रखेगा।
वस्तुस्थिति यह है कि बढ़ती हुई चरण गति एवं उभरती हुई चरण शक्ति समाज एवं संसार में अवश्य ही नये प्राण फूंकेगी ।। सभी देखते हैं कि जब समाज एवं संसार में चारों ओर शिथिलता तथा निष्क्रियता दिखाई देती है तो महसूस होता है जैसे मनुष्य जाति भी निष्प्राण हो गई हो। ऐसी चरित्रशीलता के शंख जब गूंजते हैं, चरणों की धमक जब फैलती है और आचरण से जीवन जब ओत-प्रोत होते हैं तो पूरे समाज एवं संसार में भी नये प्राणों का जैसे सब ओर संचार होने लगता है। चरित्र निर्माण के प्रभाव को प्रसारित होने से तब रोका नहीं जा सकता है।
चरण गति एवं चरण शक्ति का स्रोत व्यक्ति से ही फूटेगा किन्तु वह प्रवाहित होगा। समाज तथा संसार के विशाल प्रांगण में। वह प्रवाह जितने अधिक वेग वाला होगा, उतने ही दूरस्थ क्षेत्रों तक भी वह फैलेगा एवं वहां के लोगों को प्रभावित करेगा। महापुरुषों के अमित प्रभाव विस्तार का यही रहस्य है। उनका जीवन इतना तेजस्वी, उनकी वाणी इतनी ओजस्वी तथा उनकी साधना इतनी यशस्वी होती है कि उनका प्रभाव कालजयी बन जाता है। यह चरित्र की उत्कृष्ट स्थिति होती है । चरित्रशीलता की प्राभाविकता अपार ही नहीं, अनुपम भी होती है।
चरित्र की उत्कृष्टता की कसौटी है परमार्थ, परहित एवं लोक-कल्याण :
चरित्र का जब ह्रास होता है अथवा चरण गति एवं चरण शक्ति का जब विपरीत दिशा में भटकाव होता है तब स्वार्थ भड़कता है, अहंकार फुफकारता है और अन्य अनेक विकार उबलते व उफनते हैं। स्वार्थ बढ़ते-बढ़ते दैत्याकार हो जाता है और अहंकार किसी को नहीं देखता, किसी की नहीं सुनता । चरित्रहीनता की दशा में विकार क्या फैलते हैं कि उसका सारा जीवन हिंसापूर्ण बन जाता है, बल्कि वहां से हिंसा की जो लपटें उठती हैं वे समाज को भी जलाने लगती है।
स्वार्थ अपना दायरा बढ़ाता हुआ शोषण पर उतरता है। शोषण का मतलब है दूसरों के श्रम को लूटना, उनके हितों को कुचलना । शोषण के लिये शुद्ध शब्द हिंसा ही है। शोषण की राह में जब धाएं आती है तो स्वार्थ दमन पर उतरता है। यही स्वार्थ वर्ग सत्ता एवं सम्पत्ति के बल के माध्यम से बहुसंख्यक, दुर्बल तथा असहाय लोगों पर शोषण तथा दमन की क्रूर हिंसा ढाते हैं। वे शस्त्रों से प्राणियों का प्रत्यक्ष वध भले न करते हों, किन्तु इन के हितों पर घातक आघात करते हुए उनके प्राणों को क्षत-विक्षत कर देते हैं।
अहंकार का नाग भी कम नहीं होता है। किसी भी प्रकार की भौतिक शक्ति जब किसी को प्राप्त हो जाती है और वह उस शक्ति को अपने आत्म बल से पचा नहीं पाता है तो उसके मन में मद पैदा हो जाता है। यही मद अहंकार, अभिमान या घमंड़ में फूटता है। तब वह व्यक्ति अपने आपको वैसा समझना शुरु कर देता है जैसा वह वास्तव में होता नहीं है और जैसा वह वास्तव में होता है, वैसा समझने की उसकी समझ नहीं बचती है। अहंकार की भ्रान्ति उसकी दृष्टि हर लेती है। अंधेपन और पागलपन में कितना अनर्थ हो सकता है, उसका कोई हिसाब नहीं । स्वार्थ और अहंकार से उपजे अन्यान्य विकारों की गिनती करना भी कठिन है। तो ऐसा होता है चरित्रहीनता का दुष्परिणाम ।
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