Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
छोड़ती है। जिसकी चारित्रिक शक्ति सुगठित, शुद्ध एवं सुदृढ़ बन जाती है, उस व्यक्ति के दैनिक जीवन में भी किसी के अहित का, अनिष्ट का, अमंगल का विचार या आचार में तनिक-सा भी अंश नहीं रहता है। वह सर्वहित का साधक बन जाता है। उसकी प्रत्येक क्रिया सर्व मंगलमय, सर्वसुखद तथा सर्वोत्तम बन जाती है। यही चरित्र की उपयोगिता, सार्थकता एवं महत्ता है। ___ मानव जीवन का सर्व सुखद पहलू है उसका पवित्र चरित्र। यह जितना विकसित होता जाता है उतना ही स्वभाव-मधुरता, मित्रता, प्राणीवत्सलता, आत्मोपम्य भावना, सहिष्णुता एवं समग्रता बढ़ती जाती है। परिणामस्वरूप एक चरित्रवान व्यक्ति स्व-पर में सुख-शान्ति एवं अखूट आनन्द की अनुभूति करता है। बाहर के चलने से भी यह भीतर का चलना अधिक गंभीर, अधिक सुखदायक तथा अधिक हितकारक होता है। बाहर के चलने की भौतिक दूरी तो दिखाई देती है लेकिन भीतर चलने की आत्मोन्नति की दूरी का कोई माप नहीं, वह चन्द्ररुद्राचार्य के शिष्य के समान कैवल्य ज्ञान तक पहुँच सकती है। यह चरित्र का चरम उत्कर्ष होता है। इस दिशा में जो साधक एवं महापुरुष अग्रगामी होते हैं, उनका जीवन ही चरित्र का जीवन्त रूप धारण कर लेता है। तभी तो वैसे जीवन को चरित्र कहा जाता है, जैसे कल्पसूत्र में भगवान् महावीर का जीवनोल्लेख उनका जीवन चरित्र कहा जाता है तो महाकवि तुलसीदास ने श्रीराम की जीवन गाथा को 'रामचरित मानस' नाम दिया। आशय यह कि उत्कृष्ट जीवन को ही चरित्र की संज्ञा दे दी जाती है। आखिर महापुरुष का चलना आदर्श चलता तो होता ही है।
इस दृष्टि से चलने यानी चरित्र का सम्बन्ध जीवन की प्रत्येक क्रिया से होता है- कैसे उठना, कैसे बैठना, कैसे सोना, कैसे खाना, कैसे बोलना और कैसे चलना आदि। इन सबका सम्यक् समाधान हमें चरित्र के द्वारा प्राप्त होता है। चरित्र को चाल-ढाल या चाल-चलन का प्रतीक माना गया है। यदि जीवन के सारे कार्य सावधानी, सतर्कता एवं यतनापूर्वक होते हैं तो वह निष्पापता का संकेत होता है ( जयं चरे, जयं चिढ़े, जयं मासे, जयं सए, जयं भुजन्तो भासन्तो, पाव कम्मं न बंधईमहावीर) यह यतना चरित्र का लक्षण है। ये सब कार्य मानव को अशुभता से दूर करते हैं तथा शुभता की ओर आगे ले जाते हैं। मूलत: चरित्र की यही प्रामाणिकता एवं सार्थकता है कि अशुभ कार्यों से निवृत्ति होती जाए एवं शुभ कार्यों में प्रवृत्ति बढ़ती जाए। चरित्र के समानार्थक शब्दों का अन्तर्भाव एक, पर व्यवहार के रूप अनेक ___ चरित्र के अनेक समानार्थक शब्द हैं, यथा-चरण, आचरण, आचार, चरति, चरैवेति, चाल-चलन
आदि, किन्तु प्रत्येक शब्द का मूल 'चर्' धातु में ही समाविष्ट है। प्रत्येक शब्द का बोध 'चलने' में ही रहा हुआ है। यह अवश्य जानने की बात है कि कि चलना किस प्रकार, किस दिशा में और कहाँ तक? ___सब समानार्थक शब्दों के भाव की एकरूपता को दृष्टि में रखते हुए सबसे पहले यह जानना होगा कि हमारी मंजिल क्या है? उसका मार्ग कौनसा है? हमें कहाँ जाना है और हम जा कहाँ रहे हैं? यह निर्धारित कर लेने के बाद का चलना ही असल में चलना है। उस ओर तब तक चलना है जब तक हमें हमारी मंजिल न मिल जाए। एक साधक उस प्रकार का यात्री होता है, जिसको सतत चलना
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