Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरण चमत्कार से हो सकता है कैसा भी जीवन महिमा-मंडित
सकगा।
लिये चरण गति अर्थात् चरित्र गठन इस रूप में ढालना होगा कि व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हिंसा से लड़ा जाए और समग्र मानव-संबंधों को अहिंसा पर प्रतिष्ठित किया जाए। यह संघर्ष प्रत्येक वृत्ति तथा प्रवृत्ति में निरन्तर चलता रहे। ऐसे संघर्ष के दौरान ही यह अनुभव होगा कि समाज और राज्य की व्यवस्था में शोषण को समाप्त करने का जो अभियान है, वह निरा आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, अपितु उसके अंग रूप में ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त भी अनिवार्य होते हैं। शोषण समाप्ति का अभिप्राय है वर्गहीनता के विषय में जो भ्रामक मान्यता है कि उसमें व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं रहता उसे दूर कर देनी चाहिए। यथार्थ तो यह है कि वर्गहीन व्यवस्था में अपनी-अपनी विलक्षणता के कारण व्यक्तित्वों के खिलने निखरने के विशेष अवसर प्राप्त होंगे। तब हिंसा बल और उसके साधन उतनी ही मात्रा में बचेंगे जितनी मात्रा में अहिंसक शक्ति का अभाव रहेगा। वर्गहीन समाज वह समाज होगा जो प्रेम की शक्ति पर चलेगा और किसी को यह मानने की स्थिति नहीं रहेगी कि वह शोषक है अथवा शोषित है। अपने आपको सब एक दूसरे के पूरक अनुभव करेंगे और उस भावना के साथ परस्पर की पूर्णता में सहायक बनेंगे। वर्गहीनता के लिये वर्गों को मिटाना नहीं है, बल्कि संबंधों में वैसी सहयोगिता तथा स्वस्थता को प्रवेश दिलाना है कि जिसमें वर्ग चेतना ही अनावश्यक हो जाए। वर्गहीनता की ऐसी मानसिकता से ही उत्पन्न होगी व्यवस्था की परमार्थता। तब सबका संयुक्त अर्थ ही परम अर्थ बन जाएगा। यही नहीं, परमार्थ तत्त्व स्थायी रूप से व्यवस्था के साथ घुल-मिल जाएगा। सर्वत्र व्यवस्था का आधार परमार्थ होगा और कोई भी व्यक्तिगत स्वार्थ उसे प्रभावित अथवा विकत नहीं बना सकेगा।
चरण गति के ऐसे विकास क्रम में क्रान्ति की दिशा और दशा कभी-भी भटकेगी नहीं। जिस आदर्श को लक्ष्य बना कर क्रान्ति की जाएगी, वह उस आदर्श के साथ जुड़ी हुई रहेगी। क्रान्तियों के मूल में आदर्शवाद की जो मरीचिका दिखाई गई थी, वह इसी कारण वास्तविकता नहीं पकड़ सकी कि उस आदर्श को अन्त:करण की स्वीकृति नहीं मिली थी। साम्यवादी क्रान्ति रही हो या समाजवादी क्रान्ति उसमें व्यक्ति के अस्तित्व को गौण मान लिया गया। अतः अन्तःकरण की स्वीकृति ओझल ही रही, परिणामस्वरूप वे क्रान्तियां काल के गाल में अकाल में ही समा गई। क्रान्ति के साथ आदर्श संयुक्त रहे, इसके लिये व्यक्तिगत चरित्र की महत्ता स्थापित करनी होगी। विचारधाराएं टिकती है
और हटती है लेकिन मनुष्य हमेशा टिकता है। वाद नये पुराने बनते हैं, मनुष्य सनातन रहता है। सच यह है कि मनुष्य कसौटी है और सब वाद उस पर कसे, परखें और असफल होने पर फैंके जायेंगे। मनुष्य को सम्पूर्ण प्रगति के केन्द्र में लेना अनिवार्य है और मनुष्य को केन्द्र में लेने का सीधा अर्थ है कि उसके चरित्र निर्माण को सर्वाधिक महत्त्व देना। चरण चमत्कार से ही बदलेगी दृष्टि और नई दिखाई देगी सृष्टि :
सृष्टि तो यथावत् है, किन्तु दृष्टा अपनी बनती, बिगड़ती, बदलती दृष्टि के कारण उसी सृष्टि को विविध आकारों, प्रकारों, रूपों और रंगों में देखता हैं और तदनुसार सृष्टि का स्वरूप निर्धारित करने की चेष्टा करता है। यों सृष्टि जो बदलती हुई दिखाई देती है वह व्यष्टि के कारण ही। व्यक्ति का जो रूप-स्वरूप होता है, वही सृष्टि के स्वरूप में प्रतिबिम्बित होता है। दृष्टा का रूप-स्वरूप,
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