Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरण चमत्कार से हो सकता है कैसा भी जीवन महिमा मंडित
को सुरक्षित बनाई जाए और धर्म की सुरक्षा की गारंटी होता है चरित्र । चरित्र रक्षित है तो धर्म रक्षित है और धर्मरक्षित है तो वह सब प्राणियों की रक्षा करने में समर्थ है। धर्म को धारण करने से कल्याण होता है, मगर धर्म का मात्र कथन ही किया जाता रहे तो वह कल्याण का कारण नहीं बन सकता है। धर्म को धारण करने का अर्थ है उसे जीवन के आचरण में उतारना । यह आचरण की विधि है उसी का नाम चरण विधि है । चरण अर्थात् आचरण और आचरण से चरण गतिशील होते हैं तथा उच्चतम विकास साध कर वे चरण ही भगवत् चरण में रूपायित हो जाते हैं-सेवा से सेव्य के लक्ष्य तक ।
धर्म ताना है तो चरित्र बाना और इसी ताने-बाने से बना वस्त्र ही सार्थक जीवन का श्रृंगार बनता है। धर्म जीवन में नहीं है तो इसका साफ मतलब है कि जीवन में चरित्र नहीं है । एक चरित्रहीन कभी-भी धार्मिक पुरुष नहीं हो सकता है। धर्म या कर्त्तव्य तथा चरित्र की एकजुटता आवश्यक है ।
चरित्र सम्पन्नता के पथ पर पुरुषार्थ चतुष्ट्य का योगदान :
पौरुष से पुरुष शब्द बना है। पौरुष का अर्थ होता है पराक्रम या साहस । किसी भी प्रयोजन को प्राप्त करने अथवा साध्य को सिद्ध करने के लिये पराक्रम या साहस की आवश्यकता होती है कि प्रयोजन या साध्य को प्राप्त करने तक किसी प्रकार की विचलितता अथवा शिथिलता नहीं व्यापे । ऐसे पौरुष का धनी ही सच्चे अर्थ में पुरुष कहलाता है। पुरुष से ही पुरुषार्थ शब्द की उत्पत्ति है। जो पुरुष के लिये हो, उसके पौरुष के प्रयोग के लिए हो अथवा जीवन की सफलता के लिये हो, वह पुरुषार्थ है । पुरुषार्थ का दूसरा नाम श्रम भी है - पुरुष हो, अतः पुरुषार्थ करो ।
भारतीय संस्कृति में यह पुरुषार्थ चार प्रकार का बताया गया है। चार के क्रम में पहला है धर्म का पुरुषार्थ और अन्तिम है मोक्ष का पुरुषार्थ । बीच में रखे गये हैं अर्थ और काम के पुरुषार्थ । इन चारों पुरुषार्थों का मर्म समझें और यह जाने कि व्यक्ति की चरित्र संपन्नता में इन पुरुषार्थों का क्या योगदान है ? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष किस प्रकार व्यक्ति के तथा सामुदायिक जीवन में चरित्र का निर्माण करके जीवन को समस्त विकारों से मुक्ति दिलाते हैं? जीवन का यही तो लक्ष्य है कि वह सभी प्रकार के विकारों तथा बंधनों से छुटकारा प्राप्त कर ले और समग्र समाज व संसार का धरातल ऐसा समतल बन जाय कि फिर कभी विकारों की आंधियां न चल सके और बंधनों की बेड़ियां पांवों में न पड़े। सबको ऐसा मोक्ष मिले और जो आध्यात्मिक दृष्टि से मोक्ष का स्वरूप वर्णित किया गया है, इस मोक्ष से उस मोक्ष की ओर भी गति सहज बने ।
धर्म किसे कहें? शास्त्रीय व्याख्याओं से कुछ अलग हट कर सरलार्थ में कहें तो धर्म कुछ ऐसा होना चाहिये जहां से हमारे हृदय को एवं हमारी भावनाओं को पोषण मिले। धर्म आज भले ही संगठित मतवाद और पूंजीवाद का नाम बन गया हो किन्तु हृदय को प्रभावित करने वाला धर्म सदा उपयोगी रहा है और रहेगा। सामान्य रूप से व्यक्ति या पदार्थ के साथ समझ का मेल बिठा कर व्यवहार चला लिया जाता है, किन्तु भीतर में एक भावनात्मक भूख बनी रहती है जो बाहर के व्यवहार से भिन्न होती है। धर्म इसी तल की अभिव्यक्ति है । यह निश्चित मानिए कि वर्तमान भौतिक उन्नति से जब आज का व्यक्ति और समाज अघा जायेगा तब वह ऐसे धर्म की संभावनाओं
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