Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
प्रयास किये जाते हैं। संस्कार शुद्धि के आधार पर ही विकासशील व्यक्तित्व सामने आते हैं तो सुचारु सभ्यता एवं प्रेरक संस्कृति का प्रसार होता है। आज नये मानव का सृजन अपेक्षित है जो होगा चरित्र के निर्माण से :
वर्तमान में मानव का व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से जो रूप-स्वरूप बना है, वह मानवता के स्तर पर वांछनीय नहीं है। काल प्रवाह में आज के मानव के मन मानस पर धर्म दर्शन एवं अन्य प्रगतिशील विचारधाराओं के श्रेष्ठ सिद्धान्तों की क्रिया कम तथा प्रतिक्रिया अधिक दिखाई दे रही है। वह स्वभाव में रमण करने की अपेक्षा विभाव के अंधकार में अधिक भटक रहा है। उन मानवीय मूल्यों का उसके जीवन में अधिक प्रभाव नहीं बचा है जो उसे मानव का सच्चा स्वरूप प्रदान कर सके। आशय यह कि आज नये मानव का सृजन अपेक्षित है। नये मानव के सृजन का अर्थ यही कि नये मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा हो तथा व्यक्ति एवं समाज की शक्तियाँ संयुक्त होकर उनके कार्यान्वयन को सफल बनावें।
नये मानव का सृजन-यह कोई सामान्य कार्य नहीं है। इसके लिये भगीरथ प्रयत्न की अपेक्षा रहेगी। इस प्रयत्न की दिशा होगी चरित्रनिर्माण की दिशा। व्यक्ति का निजी एवं सामाजिक चरित्र इस तरह गढ़ा जाये कि उसके सुसंस्कार प्रतिफलित हों तथा वह अपने नये मानवीय स्वरूप के साथ समाज एवं विश्व को नये धरातल पर प्रस्थापित करे। यों यह कार्य उतना कठिन नहीं, जितना कि करने के पहले प्रतीत होता है। मानवीय प्रयत्न के साथ प्रकृति का पूरा सहयोग इसमें प्राप्त होता है। प्राकृतिक नियम यह है कि मानव जीवन सदा के लिये सुषुप्त अथवा निष्क्रिय कदापि नहीं रहता है। व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र या विश्व में भी उत्थान-पतन की एक साईकिल चलती है यानी कि समय बदलता रहता है। कल, आज और कल अर्थात् तीनों काल परिवर्तन की सूचना करते ही हैं। पतन के बाद उत्थान का क्रम होता है और आज के मानव की पतनावस्था के बाद उसके उत्थान की दिशा में प्रयाण अवश्यंभावी है। इस अवश्यंभावी को हम अपने प्रयत्नों से समीप से समीपतर ला सकते हैं तथा ऐसा करने का कम से कम प्रबद्ध जनों का परम कर्त्तव्य है।
इस परम कर्त्तव्य का निर्वाह किया जा सकता है चरित्रनिर्माण का एक सतत एवं सक्रिय अभियान चला कर और उसे व्यापक स्तर पर फैला कर। चरित्रनिर्माण ही वह कुंजी है जिससे विकास के सभी लक्ष्यों की दिशा में गतिशीलता उत्पन्न होती है, अग्रसर बनती है। चरित्रवान सदस्यों का कोई भी संगठन उन्नति के शिखर तक अवश्यमेव पहुंचेगा। कारण, चरित्रशीलता व्यक्ति को उदार, सदृश्य, सहयोगी एवं सदाचारी बनाती है। जहां चरित्रशीलता है, वहां ऐसी कोई सम्पदा नहीं जो उसके चरणों में समर्पित न हो।
धर्म के क्षेत्र में तो चरित्रशीलता का मौलिक एवं मुख्य रूप से महत्त्व है। चरित्रनिर्माण की सुदृढ़ भूमिका पर ही धर्म की सच्ची आराधना संभव बनती है। चारित्रिक निष्ठा से जिस ऊर्जा का प्रस्फुटन होता है, वही व्यक्ति को धर्म एवं समाज के उत्थान हेतु क्रियाशील बनाती है। एक उक्ति है-धर्मो रक्षति रक्षितः। धर्म रक्षा करता है, किन्तु कब? यह तभी संभव है, जब पहले धर्म अर्थात् धर्म भावना
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