Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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अब तक के विकास का पोस्टमार्टम अर्थात मानव जीवन के यथार्थ की खोज
दिशा और दशा में क्या-क्या बदलाव लाए जाने चाहिए। ___ पहले देखें कि मानव जीवन का यथार्थ क्या है? एक शब्द में इसका उत्तर दें तो वह होगा-स्वपर कल्याण। कल्याण का अर्थ उत्थान, उद्धार आदि से लिया जा सकता है। सोचें कि स्व और पर क्या? यह विश्व का मोटा-सा विभाजन है-स्व का अर्थ है स्वयं और व्याकरण के अनुसार 'मैं' और पर का अर्थ है अन्य-मैं के सिवाय सब। मैं के साथ पर को जोड़ दें तो पूरा संसार बन जाता है। मैं' प्रमुख होता है, उत्थान के मार्ग पर भी और पतन के मार्ग पर भी। कहीं-भी पतन की कारण होती है मैं की विवेकहीन प्रमुखता अर्थात् स्वार्थ केन्द्रित प्रमुखता। मैं ही सब कुछ हूँ, मैं ही सब कुछ बनूँ
और मैं ही सबका आदर पाऊँ-इस लालसा से जब व्यक्ति अंधा हो जाता है तो कोई भी अकरणीय नहीं बचता जो वह न करें या न करना चाहे। यह होता है मैं का विकृत रूप। परन्तु वही 'मैं' जब परोपकार को प्राथमिक बना लेता है और स्व से भी ऊपर 'पर' को स्थान दे देता है तब त्याग का क्रम शुरु होता है। त्याग, संयम और तप के माध्यम से 'मैं' तपता जाता है, स्व को विगलित और विसर्जित करता जाता है कि स्व तिरोहित होता है। जब स्व नहीं रहता स्व-अर्थ की दृष्टि से तो पर कहां रहेगा? तब तो एक ही तत्त्व बचेगा और जो कहलाता है पूर्ण । पूर्णत्त्व ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना
गया है।
तो जीवन का यथार्थ हुआ पूर्णत्व, जिसका प्रारंभ था स्व-पर कल्याण। वैसे भी स्व और पर के कल्याण की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। स्व की जागृति के बिना पर के उपकार या कल्याण का भाव ही पैदा नहीं होता है और परोपकार का कार्य उत्साहपूर्वक तभी चल सकता है। जब स्व की गति त्याग और संयम के पथ पर अग्रसर बने। वास्तव में यह कल्याण पथ एक ही है। जब तक गृहस्थ रहते हए पर सेवा का कार्य करता है तब तक वह उसमें पूरा समय नहीं दे सकता और न ही अपनी परी ऊर्जा उसमें लगा सकता है। किन्तु सांसारिकता छोड़ कर जब वह साधुवृत्ति में प्रवेश करता है तब वह संकुचित सीमा से निकल कर असीम हो जाता है। पूरे विश्व का हो जाता है। उस समय वह स्व के कल्याण में भी उच्चस्थ होता है तो पर के कल्याण में भी। _ 'जिन खोजा, तिन पाइयां' की उक्ति के अनुसार कोई अपनी संपूर्ण निष्ठा से अलभ्य को भी खोजने निकले तो उसे निराशा कभी भी हाथ नहीं लगेगी। उसकी खोज अवश्य सफल होगी। फिर मानव जीवन के यथार्थ की खोज में कोई लगे तो उसे यथार्थता का मूल और विस्तार सब कुछ अवश्य प्राप्त हो जाएगा। जब लक्ष्य स्पष्ट हो और खोज का वस्तु विषय तो उसे कहां और कैसे खोजा जाय-उसके संबंध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रहेगा। आवश्यकता है कि खोज का श्री गणेश कर लिया जाए। पथ और गतिक्रम सही है तो आगे बढ़ते रहने में कोई अड़चन नहीं रहेगी तथा आने वाली कठिनाइयों का समाधान भी सहजतापूर्वक होता जाएगा। यथार्थ मिलेगा मनुष्य के अपने ही भीतर और पथ दिखायेगा चरित्र :
"मनः एव कारणं बंधमोक्षयो" का रहस्य मनुष्य को यथार्थ की झलक दिखाएगा। मनुष्य की शक्ति का स्रोत होता है मन, क्योंकि जो कुछ मन में निश्चित होता है, वही वचन से प्रकट होता है
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