Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती?
समय बिगड़ते हुए मानवीय मूल्यों को विविध भावनात्मक एवं आन्दोलनात्मक प्रक्रियाओं के माध्यम से फिर से बनाना-गढ़ना होता है और सबके साथ मिलकर उन्हें संवारना होता है। इस प्रकार मानव ही मानवीय मूल्यों को गढ़ता-बिगाड़ता और रचता-संवारता है।
यह चक्र निरन्तर चलता रहता है तथा यही विश्व की व्यवस्था है। शुद्ध सोना काम में लाया जाता है, मैला होता है, फिर उसे गलाया और तपाया जाता है और पुनः शुद्ध बना दिया जाता है। इस चक्र को वे ही चलाने में समर्थ होते हैं जो मानवीय मूल्यों की मशाल सजगतापूर्वक अपने सशक्त हाथों में थामे रखते हैं। आज के मानव जीवन को कसौटी पर चढ़ाने की बेला आ गई है :
आज अधिकांश सन्तों, साधकों तथा विचारकों का ख्याल है कि सोना 99 टंच या 24 कैरेट से नीचे खिसक कर 20-25 टंच या 5-6 कैरेट तक पहुंच गया है यानी कि मानवीय मूल्यों का चिन्ताजनक स्थिति तक क्षरण हुआ है और वह होता जा रहा है। यह क्षरण सर्वत्र एकसा नहीं है, फिर भी कसौटी पर आज के मानव जीवन को चढ़ाये बिना अशुद्धता की निश्चित पहचान नहीं की जा सकती है। कसौटी पर चढ़ाने का मतलब है जांच-परख की बात कि जिसके आधार पर उपाय सोचे जा सके, निर्धारित किये जा सके और अमल में लाये जा सके! ताकि अशुद्धता को समाप्त करके मानव जीवन में अधिकतम शुद्धता लाई जाए। इस दृष्टि से स्वयं सोचना एवं सामान्य जन को समझना होगा कि मानव जीवन आज कैसा बन गया है और उसे कैसा बनाया जाना चाहिये, कैसे बनाया जाना चाहिये।
पहले देखें कि आज का मानव जीवन अधिकांश रूप में कैसा हो गया है? निर्मिति के नजरिये से आत्मा और शरीर दोनों की युति का नाम जीवन है। युति का क्या अर्थ है? केवल युति का जीवन तो मानव ही नहीं. सभी प्राणी भी जीते हैं किन्त वास्तव में जीने की क्षमता मानव को प्राप्त है और वह यदि जीने की कला में कुशल हो जाय तो उसका जीवन यथार्थ रूप से सार्थक बन जाता है। ऐसी सार्थकता आज के मानव जीवन में मुश्किल से ही दिखाई पड़ती है। यह क्षमता जागृतावस्था की क्षमता होती है और इसका अभाव बताता है निद्रावस्था। मतलब कि मानव जीवन सो रहा है और जो सोवत है, वह खोवत है। कुछ करता और पाता वह है जो जागृत होता है-जो जागत है सो पावत है। संक्षेप में आज का जीवन मूर्छाग्रस्त है। ___ जीवन एक यात्रा है और यात्रा में सर्वाधिक महत्त्व गति का होता है कि गति की दिशा व दशा दोनों कैसी है। गति की दिशा और दशा को सुघड़ एवं सुव्यवस्थित करने की कला का नाम ही जीवन की कला है। यह कला जीवन को सोद्देश्य, सक्रिय एवं सार्थक बनाती है। जब कसौटी पर आने वाला टंच खोट बताने वाला हो तब जीवन की कला को अधिक प्रखर, अधिक व्यापक बनाना होता है। आज जीवन को कसौटी पर चढ़ाने की तथा जीवन की कला सिखाने की कठिन बेला आ गई है।
गहराई से सोचें कि आज का मानव जीवन निद्राग्रस्त या मूर्छाग्रस्त क्यों है? मूल कारण यह है कि मानव स्वार्थ केन्द्रित हो गया है, परमार्थ को भूल गया है। स्वार्थों का केन्द्रीकरण भी इतना जटिल कि जिसे बारीकी से समझना कठिन और उस जकड़ को ढीला करना बहुत कठिन। आज दो स्वार्थ मुख्य
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