Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
हैं-सत्ता का स्वार्थ और सम्पत्ति का स्वार्थ । सत्ता के केन्द्रित स्वरूप का कुछ अंशों में विकेन्द्रीकरण होने के बाद यह तथ्य साफ हो रहा है कि सत्ता की ललक में पतन की कोई सीमा नहीं रहती और न अन्याय व अत्याचार की कोई हद। यह नहीं है कि यह लाईलाज बात है, पर सुदृढ चरित्र के बिना सत्ता स्वार्थों पर अंकुश लगा पाना अत्यन्त कठिन होता है। यही बात सम्पत्ति के स्वार्थों के प्रति आसक्ति, लालसा या मूर्छा अपार रूप से बढ़ी हुई है। जिसके पास सत्ता और सम्पत्ति जुटा रहता है। जिसके पास सत्ता और सम्पत्ति नहीं है, उसकी भी लालसा अपार है और प्रयास अथक है। यानी कि तृष्णा वैतरणी नदी बनी हुई है। एक ओर सत्ता और सम्पत्ति की सीमाहीन मूर्छा है तो दूसरी ओर सत्ता और सम्पत्ति से हीन दीन लोग अपने निर्वाह मात्र की ऐसी कशमकश में कसे हुए हैं कि वे बेजान और बेसहारा हैं। इस प्रकार चारों ओर जीवन मूर्छाग्रस्त है। यह परिग्रह की मूर्छा है। स्वयं परिग्रह सत्ता-सम्पत्ति आदि की अपेक्षा इसके प्रति जो मूर्छाभाव है, आसक्ति है वह अधिक विघातक होती, है ( मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-महावीर ) और इसी मूर्छा से आज का जीवन अपने जीवन तत्त्व को ही भूला बैठा है। चारों ओर मूर्छावस्था की कुंठा फैली हुई है। इस अवस्था में जागृति का अभाव है, वैचारिकता का अभाव है, भावना का अभाव है और कार्य कर्त्तव्य का अभाव है। इन अभावों के बीच कहाँ है जीवन, कहाँ है मन और कहाँ है मानव? मन निद्रागत है, विकास के द्वार बन्द हैं, उन्नति का पथ अवरुद्ध है। अन्तर से आवाज उठे-खोल मन, दरवाजा खोल :
हमें अपने मन का द्वार-अन्तरंग का दरवाजा खोलना है। दरवाजा अगर बंद हो तो कोई कैसे बाहर से भीतर जावे अथवा बाहर वाला भीतर आवे? द्वार खुले तभी आवागमन संभव है। यह छोटीसी बात है और छोटा-सा बालक भी इसे समझता है, लेकिन मन के द्वार के विषय में तो गंभीर चिन्तन आवश्यक है। कारण, इस द्वार को खोलने के लिये विशेष उपक्रम करना पड़ता है। मन अदृश्य होता है तो उसका द्वार भी अदृश्य ही रहेगा, अत: मनन से ही द्वार को खोलना होगा। मन का धर्म मनन है और मनन से ही मानव है (मननात् मनः, मनन् शीलास्वभावात् मानवः)। अतः मनन से मन का द्वार खुलेगा और उसे सही गतिशीलता मिलेगी। मन को इन काव्य-पंक्तियों के माध्यम से उद्बोधन कर रहा हूँ
अखिल विश्व की हलचल के, मन, सूत्रधार तुम्हीं हो। प्रगति या पतन अथवा गति परिवर्तन के प्राणाधार तुम्ही हो। चित्त चंचलता के वाहक-संवाहक अन्तर्द्वन्दों के, शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के दावेदार तुम्ही हो । अद्भुत है निर्माण तुम्हारा नहीं समझ में आया है।