Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
का भाव प्रदर्शित करता है। अतः बाहर और भीतर के जीवन में सच्ची एकता साधी जानी चाहिए।
वर्तमान समय में अक्सर कहा जाता है कि लोग अपने चेहरों पर कई-कई मुखौटे ओढे रहते हैं। जिसका मतलब यही होता है कि उनके चरित्र में यानी बाहर-भीतर की जिन्दगी में एकरूपता नहीं है। जो वह सोचता है, बोलता उससे कुछ अलग है और जो बोलता है, काम उसके दूसरे ही होते हैं। मन से, वचन से और कर्म से जो अलग-अलग हो, वह दुर्जन है। सज्जन का स्वभाव निश्छल और सरल होता है-मन, वचन, एवं कर्म से एक। सज्जन चरित्रशील होता है। यों मुखौटे यानी कि दोगलापन दुर्जनता की निशानियां हैं। जीवन का सम्यक् विकास तभी संभव और सफल बनता है जब अपनी अन्तर्मुखिता तथा बहिर्मुखिता में एकरूपता पैदा हो, एकरूपता बनी रहे तथा वह एकरूपता इतनी स्पष्ट हो कि वह सब पर अपना सुप्रभाव डाल सके। यह एकरूपता सभी उन्नतिकामियों के लिये साध्य रूप है। ___ मौलिक रूप से यही प्रश्न सर्वत्र उभरता है कि चरित्र का निर्माण एवं चरित्र की सुरक्षा की दिशा में सदैव सजगता बनी रहनी चाहिये। मन, वचन, कर्म की एकता के बिना न व्यक्तित्व का गठन होता है और न ही गतिशीलता पैदा होती है। यह एकता चरित्र के निर्माण से साधी जा सकती है। चाहे व्यक्ति का निजी जीवन हो अथवा उसका सामाजिक जीवन-उसकी गतिविधियों से छल का दोष निकले तभी सरलता का प्रवेश हो सकेगा। छल ही भांति-भांति के मुखौटे घड़ता है और उन मुखौटों से सच की हत्या करवाता है। इसीलिये निश्छल जीवन की महता है और शिशु की निश्छलता सराहना पाती है। चरित्र संपन्नता के साथ ही सरल एवं निश्चल जीवन का आरंभ होता है और व्यक्तित्व विराटता की दिशा में गति करता है। अन्तर्बाह्य एकता ही जीवन विकास की मूल है।
एकता के आधार पर किये गये सृजन से ही जीवन का सच्चा विकास होता है, क्योंकि चरित्रशीलता के सम्बल के साथ साधा जाने वाला विकास उच्चस्थ शिखर तक पहुंचता है तो संपूर्ण मानव जीवन को वैसे विकास के लिये प्रेरित भी करता है। भाव प्रवाह में जैसे ये काव्य पंक्तियां। सर्जित होती चली गई (मानव को सम्बोधित करते हुए)
सृजन कर ऐसे सुमन, जिनकी नई सुवास हो दुर्गंधमय संसार में जिनकी जरूरत रवास हो सृजन कर ऐसे वचन, जो सृष्टि को स्वीकार हो नित रोशनी देते रहें जो सृष्टि के श्रृंगार हो सृजन कर निष्काम पूजा, जिसमें न इच्छा, काम हो निष्काम होकर भी जो पूरे, और कामना तमाम हो सृजन कर ऐसी शिक्षा, विश्वतम को हर सके कलम्ब सारे दूर कर जो ज्योति नई भर सके सृजन कर तू छांद ऐसे, प्रेरणाएं जो भर सके संगीत से जो शून्य हैं, उन्हें संगीतमय कर सके सृजन कर ऐसी गति, जिसका न विराम हो
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