Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
और वही आचरण में उतरता है। मन की भूल हो या मन का विवेक-वही जग जाहिर होता है। इस कारण अपनी दुर्बलता या अकर्मण्यता पूरे जीवन को न घेर लें, इसके लिये मन के स्रोत को स्वच्छ बनाना नितान्त आवश्यक है। जीवन का यथार्थ भी मनुष्य के अपने ही भीतर मिलेगा और उसका ऋण मन में ही होगा।
मन सदा गतिशील रहता है, लेकिन वह कहाँ तथा किस ओर गति करें एवं कहां और किस ओर गति न करें-यह नियंत्रण मनुष्य को करना होता है। मन की पृष्ठभूमि को पुष्ट बनाने में सहयोगी होता है जो कुछ बाहर दिखाई देता व महसूस होता है। वह सब एवं जो पढ़ा, सोचा तथा मनन किया जाता है वह भी सब। ज्ञान और ध्यान मिलकर मनुष्य का भाव गढ़ते हैं। यदि मनुष्य का विवेक जागृत होता है तथा मन शुद्ध तो मन उसी दिशा में गतिशील होता है। जो दिशा उसके यथार्थ की होती है। गति उग्र से उग्रतर होती जाती है और यथार्थ की छवि भी स्पष्ट से स्पष्टतर। वस्तुतः कहा जा सकता है कि यथार्थ तो मनुष्य के भीतर ही रहा हआ है उसके मन में, जो यदि सध जाए तो यथार्थ के मोक्ष को प्राप्त कर ले और यदि भटक जाए तो ऐसा बंध जाए कि यथार्थ का कोर-किनारा भी न दिखाई दे।
यथार्थ की खोज इस दृष्टि से मनुष्य को अपने भीतर ही करनी होगी और भीतर की अवस्थिति ही परिपक्व होने पर बाहर प्रकट होगी। इसके बाद वचन और कर्म के रूप में जो गतिशीलता प्रांरभ होगी उस का पृष्ठबल होगा मनुष्य का अपना चरित्र। विश्व के विकास के अध्ययन में यह जाना जा चुका है कि चरित्र ही उत्थान या पतन का सदैव प्रमुख कारण रहा है और चरित्र की संपन्नता अथवा हीनता ने मनुष्य को भी और उसके संसार (क्रियाशीलता के केन्द्र के रूप में) को भी उन्नति की सीढ़ियों पर चढ़ाया है या पतन के खड्डे में नीचे गिराया है।
सारांश में कहा जा सकता है कि मानव जीवन का यथार्थ है स्व-पर कल्याण की चरम परिणति तक पहुंचना। उसके लिये चाहिए सधे हुए मन की प्रखरता तथा चरित्रसंपन्नता की गतिशीलता। यों समुच्चय में चरित्रशीलता को समग्र प्रगतिशीलता का कारक कह सकते हैं। चरित्र का निर्माण है तो व्यक्तित्व निर्माण तथा जागतिक विकास का निर्माण सुनिश्चित है।
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