Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक
दिखने वाला मानव वास्तव में मानव जीवन का धारक नहीं बनता। इसी दृष्टि से मानवता की उपलब्धि को दुर्लभ कहा गया है। मानवता का उदय एवं विकास हो, तब ही शास्त्रों, सद्ग्रंथों एवं जीवन निर्माण की सामग्री को सुनने, समझने तथा उस पर चिन्तन मनन का अभ्यास होता है और उसके बाद सच्चे धर्म एवं मानवीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा बनती है। यही निष्ठा मानव को चरित्रशील बनने तथा सदाचार का पालन करने की सफल प्रेरणा प्रदान करती है। यों ये चारों प्राप्तियां दुर्लभ कही गई है (कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुपत्ता, आययन्ति मणुस्सयं।-उत्तराध्ययन, 3/7)।
निष्कर्ष यह है कि दुर्लभता, मानव तन मिलने के बाद मनुष्यत्व की मानी गई है, क्योंकि मानव तन तो एक साधन मात्र है और साधन का सदुपयोग न किया जाए तो वह लाभप्रद नहीं बनता। यह तन निरुपयोगी रहा तो व्यर्थ हुआ और यदि इसका दुरुपयोग किया तो यह भारी हानि का कारण भी बन सकता है। मानव तनधारी एक चोर भी होता है जो छल पूर्वक दूसरों का धन आदि चुरा कर अनेकों को दु:खी करता है। मानव तनधारी एक कसाई भी है जो प्रतिदिन नृशंसता पूर्वक निरीह प्राणियों के प्राणहरण कर अपना धंधा चलाता है। यह मनुष्य ही साम्राज्यवादी बनकर राष्ट्रों को दासता की बेड़ियों में जकड़ता है तो सत्तालोलुप बनकर राजनीति को धन, बाहुबल और अपराधों पर टिकाने की कुचेष्टा करता है। मानव तनधारिणी वेश्या भी होती है जो अपने शरीर, रूप और यौवन का व्यापार चलाती है। एक नहीं, अनेकों उदाहरण दिखाई देंगे जहां इस अमूल्य मानव तन का दुरुपयोग किया जा रहा है। मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ, जो प्राप्तकर्ता एवं पूरे संसार के लिये एक वरदान बनना चाहिये था और यदि उसे ही अभिशाप का रूप दे दिया गया तो सबको उस अभिशाप के छींटे झेलने पड़ते हैं। इसलिये मानव तन की तब तक कोई विशेषता नहीं, जब तक मनुष्यत्व की प्राप्ति न हो। विशेषता होती है मनुष्यत्व की।
सच्चा मनुष्यत्व मनुष्य को देह-दर्शन से ऊपर उठाकर आत्म-दर्शन एवं विश्व-दर्शन की भूमिका प्रदान करता है। संसार की समस्त जीवात्माओं में अपनत्व का दर्शन ही वास्तविक मानव दर्शन है। जब स्व में सर्व को और सर्व में स्व को देखने का अभ्यास बनता है, तभी मानवता धन्य होती है। ऐसा मनुष्यत्व दुर्लभ ही नहीं, महादुर्लभ कहा जाना चाहिये। जब जीवन में मनुष्यत्व का भाव आत्मसात् नहीं होता, तब मनुष्य अन्याय, अत्याचार, अपराध, शोषण, दमन आदि कुकृत्यों के प्रपंच में पड़ता है और अपने स्वार्थों के लिये मानवता का हत्यारा बनता है। वह अपने कुकृत्यों से स्वर्गोपम इस संसार को नरक का नमूना बना देता है। अज्ञानी पशु तो फिर भी दूध, घी, भार वहन आदि सेवाओं से मानव समाज का यथोचित उपकार करता है किन्तु मानवता विहीन मनुष्य पशुओं से भी गया गुजरा जीवन व्यतीत करता है। अतः मनुष्यत्व का परम विकास साधने के लिये
(1) सत्या सत्य का विवेक प्राप्त करें, (2) सम्यग् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को अपनावें, (3) सर्व बन्धनों को काटने के लिये पुरुषार्थ नियोजित करे एवं