Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
क्रियाकांडों में शूद्र की भागीदारी निषिद्ध थी। यहां निषेध इस अति तक था कि यदि छल या भूल से भी शूद्र वेद वाक्यों का श्रवण कर ले तो उसके कानों में पिघला हुआ शीशा डलवा देना चाहिये। यह एक तथ्य ही स्पष्ट कर देता है कि शद्र का तत्कालीन समाज में क्या स्थान था? द्रोणाचार्य-एकलव्य प्रसंग भी इसी तथ्य को सिद्ध करता है कि उच्च वर्गों को शूद्र वर्ण की स्वोपार्जित उपलब्धि भी सह्य नहीं थी। तभी तो ज्ञानी विद्वान् गुरु द्रोणाचार्य तक ने एकलव्य से दाहिने हाथ के अंगूठे की गुरु-दक्षिणा मांग ली जिससे धनुष चलाया जाता है जबकि उन्हें गुरु-दक्षिणा पाने का कोई अधिकार नहीं था।
ऐसी जटिल वर्ण-व्यवस्था में जैन एवं बौद्ध धर्म प्रवर्तकों द्वारा सुधार के प्रभावकारी प्रयास किए गए किन्तु समयान्तर में उनकी अधिक सफलता नहीं देखी जा सकी। तभी तो माध्यमिक काल में महाकवि तुलसीदास जैसे संत कवि ने भी लिख डाला-'ढोर, गंवार, शूद्र अरु नारी-ये सब हैं ताड़न के अधिकारी'। अतः सामान्य रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ज्ञान-विज्ञान के विकास का समुच्चय रूप से सामाजिक गति क्रम के साथ तालमेल नहीं बैठा और तदनुसार सम्पूर्ण समाज के सभी वर्गों में उन्नति की जो धारा देखी जानी चाहिये थी, वह नहीं दिखाई दी। संबंधों का जाल होता है समाज, जिसमें संबंधों का संकट गहराता रहा है : ___ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ किसी भी स्तर पर जुड़ता है तो हम कहते हैं कि उनके बीच कोई संबंध है। व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ते हुए संबंधों के ये सूत्र एक नेटवर्क तैयार करते हैं, जिसे ही हम समाज के रूप में परिभाषित करते आये हैं। संबंधों एवं उससे जन्में समाज से पृथक् व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान करना बहुत कठिन है। एक सामाजिक प्राणी इन्हीं संबंधों के सहारे अपने संबंधों का संसार इस दृष्टि से अतिविचित्र एवं विस्तृत है। जन्म से पहले और जन्म के बाद कई संबंधों में बंधा मानव स्वयं संबंधों की सीमाएं, उत्तरदायित्व तथा आवश्यकताएं निश्चित करता है-वे ही संबंधों की सफलता के मूल हैं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो, पिता-माता या पुत्र का, भाई-बहिन का या मित्रता का-सबमें कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखना जरूरी होता है। इसके विपरीत तनिक सी भूल निकटतम संबंधों में भी इतनी दूरियां बना देती है कि वापिस लौटना दुश्वार हो जाता है।
सामाजिक संबंधों का मूल आधार होती है संवेदनशीलता। संबंधित दोनों पक्ष एक दूसरे की स्थिति को समझते रहें और यथा समय यथा-शक्य एक दूसरे को सहयोग देते रहें तो उस संबंध में स्थायित्व आ सकता है। किसी भी संबंध को बनाना उतना कठिन नहीं, जितना कि उसे निभाना और समरसता के साथ स्थायित्व का रूप देना। इसके लिये हार्दिकता समान रूप से बनी रहनी चाहिये। अन्य मूलभूत बातें हो सकती हैं-परस्पर विश्वास, मर्यादा पालन, नि:स्वार्थ सहयोग, स्नेह एवं सहनशीलता आदि। संवेदनशीलता जब सभी परिस्थितियों में सर्वदा सभी स्थानों एवं अवसरों पर बनी रहती है तब संबंधों में सुदृढता आती है और संबंध स्थायी बनते हैं। यह सुदृढ़ता रक्त संबंधों में प्रारंभ से न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान रहती है जिससे रक्त संबंधों की सरसता दीर्घकाल तक बनी रह सकती है। इस प्रकार संबंधों के जाल अथवा समूहों के समूह का नाम ही समाज कहलाता है।
ऐसे सामाजिक संबंध जितने अधिक व्यापक हों, सामाजिकता का क्षेत्र भी उतना ही व्यापक हो