Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति
मस्तिष्क (सबजेक्टिव माइंड) की सहभागिता होता है। यह अत्यन्त घनिष्ठ संबंधों वाले व्यक्तियों के बीच ही संभव है। मेसमर ग्रह नक्षत्र एक तरल द्रव्य द्वारा प्राणी के शरीर पर कार्य करता है, प्रभाव डालता है-जिसे 'एनीमल मेग्नेशन' कहा जाता है - यह चुम्बक से संबंधित है। मनोवैज्ञानिक शाखा द्वारा भी इसका उपयोग किया जाता है। चुम्बकीय प्रभाव से सम्मोहन किया जाता । इसकी तकनीक है समीकरण (पॉलेराइजेशन) तथा निर्देशन (सजेशन) की। चुम्बक के तापक्रम का शरीर पर प्रभाव पड़ता है जो ग्रहों की चुम्बकीय ऊर्जा से जुड़ कर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के मानस को प्रभावित करती है। यह अतीन्द्रिय शक्ति के सामर्थ्य से होता है ।
क्वांटम भौतिकी और परा- मन- यह अतीन्द्रिय शक्ति विज्ञान की क्वांटम थ्योरी से स्पष्ट होती है। एक प्रश्न है कि क्या क्वांटम भौतिकी और परा-मन या परा मानसिक सत्ता भौतिक स्वरूप यानी आकार में देखी जा सकती है? क्लासिकल भौतिकी की दो विस्मयकारी खोजें बताई जा रही है - 1. प्रकाश का दोहरात्मक व्यवहार तथा 2. लगभग बीस नये एलीमेन्टरी कणों की खोज । ऊर्जा के असतत विकिरण से फोटोन बनता है और फोटो इलेक्ट्रिक विश्लेषण का अर्थ है इलेक्ट्रोन उत्सर्जन जिसका व्यवहार प्रकाश कण की तरह होता है और यह दोहरा व्यवहार है प्रकाश कण का भी और प्रकाश तरंग का भी । परा मन भी फोटोन की तरह दोहरा व्यवहार करता है । मन की उच्च आवृत्ति की तरंगें और कणीय प्रकृति भी दोहरा व्यवहार करती है। मन की गति का सुनिश्चित पथ नहीं होता और शरीर में मन की स्थिति का भी विज्ञान को ज्ञान नहीं होता। मन का केवल संभाव्य निर्धारण किया गया है - यह मन की अनिश्चितता (अनसर्टेन्टिरी) का सिद्धान्त कहा जाता है और यही क्वांटम थ्योरी है। इसी से भूतकाल की घटना की जानकारी होती है तो इसी से भविष्य का पूर्वाभास भी । -विज्ञान के विकास का सामाजिक गतिक्रय के साथ तालमेल नहीं :
ज्ञान
प्राचीनकाल से लेकर माध्यमिक काल तक आध्यात्मिक ज्ञान का अपूर्व विकास हुआ और दार्शनिक धाराएं प्रवाहित हुई। उस समय सामान्य रूप से लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। यहां 'लोगों' से आम लोगों का मतलब निकालना कुछ भ्रामक है, क्योंकि उस समय न तो सामुदायिकता की चेतना जगी थी जिससे समाज के अस्तित्व को परिकल्पना होती और न ही निम्नवर्गीय बहुसंख्यक लोगों के वजूद का ही कोई खास महत्त्व गिना जाता था ।
यह आकलन वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में अधिक स्पष्ट हो जाता है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार सम्पूर्ण जनसंख्या चार वर्णों में विभाजित थी- 1. क्षत्रिय (राजकाज चलाने वाला वर्ग), 2. ब्राह्मण ( पठन पाठन, क्रियाकांड कराने तथा राज्य का मार्ग निर्देशित करने वाला वर्ग), 3. वैश्य (व्यापार वाणिज्य करने तथा क्षत्रियों - ब्राह्मणों को प्रसन्न रखने वाला वर्ग) 4. शूद्र (कृषि, श्रम करने तथा तीनों वर्गों के सिवाय सबको शामिल करने वाला वर्ग)। शूद्र वर्ग को मूल रूप से ही नीच या सेवक वर्ग माना गया। ऊपर के तीन वर्णों की जनसंख्या अल्प थी तो शूद्रों की संख्या विपुल । सारा राजकाज तीनों वर्णों से न्यूनाधिक रूप से संबंधित रहता था, लेकिन शूद्र वर्ण की कहीं कोई आवाज नहीं थी । जहां तक ज्ञान के विकास का संबंध है, उससे भी शूद्र वर्ण को अछूता रखा गया था। ज्ञानाभ्
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