Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक
चरित्र निर्माण का प्रमुख आधार :
मन, मनन, मनुजत्य
गांव के बाहरी किनारे की एक झोंपड़ी में अकेली एक
लकड़हारिन रहती थी। जो गरीब भी थी तो अतिशय वृद्धा भी। पास में मुट्ठी भर अन्न के सिवाय चूल्हा जलाने को लकड़ी तक न रही तो वह लकड़ी के सहारे धीरेधीरे पास के जंगल में गई। वहाँ उसे एक सूखा पेड़ दिखाई दिया। उसने आसानी से पेड़ की कई शाखाएं काटी और उनकी 'भारी' बनाई। पेड़ के तने की ओर उस की नजर गई तो उसके खोखले खड्डे में उसे एक हंडिया भी दिखाई दी। भारी उसने सिर पर रखी और हाथ में हंडिया लेकर अपनी झोंपड़ी पर लौट आई।
एक पतली लकड़ी के टुकड़े करके उसने अपना चूल्हा जलाया और साथ लाई हंडिया में अन्न को उबलने के लिये चढ़ा दिया। झोंपड़ी के सामने से एक विवेकशील सेठजी गुजर रहे थे, तभी वहां फैली हुई सुगंध से उनका तन-मन विभोर हो उठा। उन्होंने अनुमान लगाया कि यह मुग्धकारी सुगंध उसी झोंपड़ी से आ रही है। उत्सुकतावश उन्होंने उस झोपड़ी में प्रवेश किया। उनकी पारखी आंखों से कुछ भी छिपा हुआ न रह सका। उन्होंने देखा कि बावने चन्दन की लकड़ी चूल्हे में जल रही है और उसी से उठ
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