Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति
धर्म, दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में चरित्र निर्माण के बहुआयामी पक्ष
संसार में हर कोई विजय की कामना करता है, कहीं
" भी हारना नहीं चाहता। सब सर्वत्र विजय की खोज में गतिशील। खनखना रही हैं तलवारें विजय के लिये, झनझना रहे हैं कलम के किनारे विजय के लिये, दनदना रहे हैं छोटे-बड़े कदम विचारे बिन विचारे विजय के लिये। विजय सबको चाहिये कि वह विजेता के गौरव से अलंकृत हो, उसकी यशगाथा वायुमंडल में झंकृत हो...पर कहां है वह विजय? विजय के लिए जितने प्रयत्न किए जाते हैं, विजय दूर भागती जाती है, पराजय में बदलती जाती है, ऐसा क्यों हो रहा है?...विजय किस पर? दूसरों पर या अपने आप पर? शरीर पर या आत्मा पर?... किससे विजय? तलवार से या स्नेह-प्रेम से? सोच-सोचकर बेहाल. सुलझने की कोशिश पर बढ़ता जाता जाल। अनन्तकाल से समर भूमि में जूझ रहा हूँ विजय पथ को बूझ रहा हूँ। शान्त नहीं होती विजय की ललक, आतुर हूँ, पाने को एक झलक। पर हर जन्म एवं जीवन में क्या मिलती रही पराजय, परन्तु इस जन्म में बदलूँगा नियति को, पाऊँगा परम प्रतीति को। चलता रहेगा यह विजय अभियान, प्रसरित होगा ज्ञान-विज्ञान, उदित होगा चरित्र का स्वर्ण विहान!
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