Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक
और आंगन में लोग आते-जाते रहें- आपस में मिलते-जुलते रहें, मान-मनुहार करते रहें, हंसी दिल्लगी होती रहें और प्यार भरी खुशियों की नेक चहल-पहल चलती रहें। किन्तु आज की असलियत यह है कि अधिकांश कमरे भीतर से बंद हैं, खिड़कियां भी जुड़ी हुई, न बाहर की हवारोशनी आती है और न फूलों की महक । इतने बड़े भवन में हंसी के फुव्वारे नहीं छूटते । कभीकभार किसी कमरे का दरवाजा खुलता है तो बरसते हैं ईंट-पत्थर, गोलियों की बौछारें । दिखते हैं खून के फव्वारें, तबाही के नजारे और अति हो जाए तो बजते हैं युद्ध के नगाड़े।
कितना सुरीला होता है संसार, कितना मनमोहक होता है मनुष्य का जन्म, लेकिन वही मनुष्य अपनी दुर्नीति तथा कुकृत्यों से कैसा बना देता है अपने ही संसार का लोमहर्षक दृश्य? सबका मित्र होने की बजाय अपना स्वयं का ही शत्रु क्यों बन जाता है यह मनुष्य? ऐसी परिस्थितियों के बनने और पनपने की परीक्षा आवश्यक है। यही आज की सम्पूर्ण समस्या का मूल है कि सबको सबसे मिलाने का सुखद अभियान कैसे छेड़ा जाय? चरित्र निर्माण इस नये अभियान का आधार होना चाहिये ।
इस अभियान का मंत्र वाक्य हो, सारी मनुष्य जाति को एक मान कर चलो। इसी का निहितार्थ होगा - मनुष्य-मनुष्य के बीच के सारे भेदभावों को अपने मन से निकाल बाहर करो - बाहर भीतर की सारी दीवारें तोड़ दो । मान्यता भले ही अपनी रखो, पर उसे सभी मान्यताओं से मिलाओ । सम्प्रदाय अपनी ही को मानो पर सभी सम्प्रदायों के साथ एकता का रस छानो । भाषा अपनी ही बोलो, पर सबको भाषाओं को एक मानो । राष्ट्र अपना कहो, लेकिन सभी राष्ट्रों को एक कुटुम्ब जानो । जाति अपनी में रहो, पर सभी जातियों को जोड़ो। रहन-सहन, खान-पान अपनी रुचि का हो, पर सभी रुचियों का स्वाद भी कभी-कभी चखते रहो । सभ्यताएं भिन्न-भिन्न रखो पर संस्कृति का एकीकरण करो। सभी शिशु का मन अपना लो-प्यार भरी मुस्कान दो और लो। प्रत्येक सामान्य जन का समादर करो। इस समादर का एक ही आधार हो गुणवत्ता । गुणों को ही मान दो, गुणों की ही पूजा करों । मानवी संस्कृति को गुणाधारित बना दो - संसार स्वर्ग बन जायेगा ।
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