Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
है-उन्हें रोकने का न सामर्थ्य है, न अर्थ। कारण वह क्रियाशीलता ही तो जीवन है। अतः श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य की योग की परिभाषा गहराई से विचारने योग्य है, जिन्होंने कहा है कि क्लिष्ट वृत्ति निरोध अर्थात् कलुषित वृत्तियों का निरोध किया जाए। चित्त की उन वृत्तियों को रोकें जिनका रूप कलुष से भरा हुआ है-अशुभ है। क्लिष्ट वृत्ति निरोध रूप योग साधना से वृत्तियों का स्वरूप बदलना होगा-उन्हें कलुषितता से मुक्त बनाकर उज्ज्वलता का रूप देना होगा। अतः योग साधना को 'वृत्ति निरोध' न कहकर 'वृत्ति संशोध' कहना समुचित रहेगा। [सर्वमंगल सर्वदा (प्रवचन संग्रह) अध्याय 4 वृत्ति संशोध द्वारा आचार्य श्री नानेश] । __ सारभूत सत्य यह है कि मनुष्य अपने मन की गति को रोकें नहीं, उसे और तीव्र बनावे, लेकिन नियंत्रण अपना रखें और मन के आवरण को शद्ध और पवित्र बनावे। काठ के घोडे पर बैठकर गति का भ्रम बनाना नादान का काम है। विवेकी मनुष्य तो अति चंचल अश्व का आरोही बनकर उसे पवित्रता के उन्नत पथ पर आगे बढा देता है। चरित्र संपन्न व्यक्तित्व ही मन को नियंत्रित, प्रेरित एवं समुन्नत बनाता है : __ अक्सर लोग कहा करते हैं कि उनका मन कहीं भी लगता नहीं है या कि मन उखड़ा-उखड़ा रहता है अथवा मन को किसी भी काम में रस नहीं आता है। इन सब शिकायतों का एक मतलब होता है कि मन में एक तरह की बेचैनी है। इस बेचैनी का कारण खोजना जरूरी है। बेचैनी कई कारणों से हो सकती है जैसे सक्रियता का अभाव, दिशाहीनता, इच्छा या लालसा की पूर्ति का नहीं होना आदि, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण होता है चरित्रहीनता या सच्चे चरित्र का अभाव। चरित्र नहीं अर्थात् आचरण नहीं और आचरण के बिना कोई भी उपलब्धियां कहां मिलती है?
इस दृष्टि से मन की बेचैनी को समझना जरूरी है, क्योंकि इसी से मन की अनेक समस्याएं पैदा होती है। कभी-कभी समस्याएं इतनी उग्र हो जाती है कि मनोचिकित्सा की आवश्यकता उठ खड़ी होती है। मन बीमार रहे तो तन को भी बीमारियाँ लग जाती है। इस कारण मन के स्वास्थ्य की ओर तुरंत ध्यान देना चाहिये। मन न तो रोगी बनना चाहिये और न ही शिथिल। उसे हमेशा क्रियाशील बनाये रखें। इसके लिये आवश्यक और सही काम में रस (रुचि) पैदा करना होगा ताकि मन उसमें नियोजित हो जाए। मन को कार्यरत बनाये रखने का काम एक चरित्र संपन्न व्यक्तित्व ही सफलता पूर्वक संपन्न कर सकता है। चरित्रबल के साथ मन को नियंत्रित करने और नियंत्रित बनाये रखने, समुन्नति की दिशा में मन को प्रेरित करने एवं प्रोत्साहित बनाने तथा प्रगति के मार्ग पर मन को अग्रसर रखने में त्वरित एवं निश्चित सफलता मिलती है।
मन रस पल्लवित तभी होता है जब उस कार्य में आस्था और श्रद्धा का प्रगाढ़ भाव रहा हुआ है। मनुष्य की अमुक काम में यदि गहरी रुचि और दृढ़ आस्था हो तो उस का मन उस काम के रस में इतना डब जाएगा कि मन को लगाने की मनुष्य को कोई कोशिश तक नहीं करनी पडेगी। उपनिषदों में यहां तक कहा गया है कि कोई भी लक्ष्य या साध्य क्या, स्वयं ईश्वरत्व भी रस-रूप है। तभी तो मनुष्य जहां कहीं भी रस पाता है तो उसमें निमग्न हो जाता है, आनन्द-स्वरूप बन जाता है (रसो वै
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