Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥३०॥
है और जवन्य भोगभूमि में सुखमा दुखमा जो तीसरा कालहै उसकी गति रहेहै, और महा विदेह । क्षेत्रोंमें दुखमासुग्वमा जो चौथा काल है उसकी गति रहे है, और अढाई द्वीपके परै अन्तके आधे स्वयम्भू रमण द्वीप पर्यन्त बीचके असंख्यात द्वीप समुद्र में जघन्य भोगभूमिहै सदा तीसरेकालको गति रहे है और अन्तके आधे द्वीपमें तथा अन्तके स्वयम्भू रमण समुद्रों तथा चारों कोण में दुखमा अर्थात् पंचम काल की गति सदा रहे है, और नरकमें दुखमादुखमा जो छठा काल उसकी रीति रहे और। भरत अरावत क्षेत्रोंमें छहों काल प्रवृते हैं, जब पहला सुखमासुखमा काल ही प्रवृते है तब यहां देव। कुरु उत्तर कुरु भोगभूमि की रचना होयह कल्प वृक्षों से मंडित भूमि सुखमई शोभे है और उग्रत । सुर्य समान मनुष्य की कांति होय है, सर्व लक्षण पूर्ण लोक शोभे है, स्त्री पुरुष युगल ही उपजेहैं।
ओर साथही मरे हैं, स्त्री पुरुषों में अत्यन्त प्रीति होय है, मरकर देव गति पावे हैं, भूमि काल के प्रभावसे रत्न सुवर्णमयी और कल्पवृत्त दश जातिके सर्वही मन बांचित पूर्ण करें, जहां चार चार अंगुल के महा सुगंध महा मिष्ट अत्यन्त कोमल तृणोंसे भूमि अाछादित है सर्व ऋतुके फल फूलोंसे वृत्त शोभे हैं और जहां हाथी घोड़े गाय भैंस आदि अनेक जातिके पशु सुख से रहे हैं. और कल्प वृक्षों से उत्पन्न भहा मनोहर आहार मनुष्य करे हैं, जहां सिंहादिक भी हिंसक नहीं मांस का आहार नहीं योग्य आहार करे हैं, और जहां वापी सुवर्ण और रत्नकी पैड़ियों संयुक्त कमलों से शोभित दुग्ध दही घी मिष्टान्नकी भरी अत्यन्त शोभा को धर हैं, और पहाड़ अत्यन्त ऊंचे नाना प्रकार रत्न की किरणों से मनोज्ञ सर्व प्राणियोंको सुख के देने वाले पांच प्रकारके वर्णको धरे हैं, और जहां नदी !
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