Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण शाल्मली वृक्ष में भगवान्के अकृत्रिम चत्यालय हैं जो रत्नोंकी ज्योतिसे शोभायमान हैं जम्बूद्वीप की।
दक्षिण दिशा की ओर राक्षसद्धीप है और ऐरावत क्षेत्र की उत्तर दिशा में गन्धर्व नामा देश है और पूर्व विदेह की पूर्व दिशा में वरुण द्वीप है और पश्चिम विदेह की पश्चिम दिशा में किन्नर द्वीप है वे चारोंही द्वीप जिन मन्दिरों से मण्डित हैं।
जैसे एक मासमें शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष यह दो पक्ष होती हैं तैसेही एक कल्प में अवस। पणी और उत्सर्पणा दोनों काल प्रवृते हैं, अवसर्पणी कालमें प्रथमही सुखमा सुखमा कालकी प्रवृति होय है, फिर दूसरा सुखमा, तीसरा सुखमा दुखमा, चौथा दुखमासुखमा, पांचवां दुखमा और छठा दुखमादुखमा प्रवृते है, तिसके पीछे उत्सर्पणी काल प्रवृते है उसकी श्रादिमें प्रथम ही छठा काल दुखमादुखमा प्रवृते है फिर पांचवां दुखमा फिर चौथा दुखमासुखमा फिर तीसग सुखमा दुखमा फिर दूसरा सुखमा फिर पहला मुखमासुखमा । इसी प्रकार अरहटकी घड़ी समान अवसर्पणीक पीछे उत्सर्पणी और उसणी के पीछे अवसर्पा, सदायह कालचक्र इसी प्रकार फिरता रहताहै, परतु इस कालकी पलटना केवल भरत और त्रैरावत क्षेत्रमें ही है, इस लिये इनमें ही श्रायु कायादिककी हानि वृद्धि होयहै, और महा विदेह क्षेत्रादिमें तथा स्वर्ग पातालमें और भोग भूमिश्रादिक में तथा सर्व द्वीप समुद्रादिक में कालचक्र नहीं फिरता इस लिये उनमें रीति नहीं पलटती, एकही रीति रहे है। देवलोकमें तो मुखमासुखमा जो पहला कालहै सदा उसकीही रीति रहेहै और उत्कृष्ट भोग भूमिमें । भी मुखमासुखमा कालकी गति रहेहै और मध्य भोगभूमिमें सुखमा अर्थात् दूजे काल की रीति रहे
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