Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( २८ ) गुणस्थान के इन चौदह भेदों में पहले की अपेक्षा दूसरे में, दूसरे की अपेक्षा तीसरे में इस प्रकार पूर्व-पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा परपरवती गुणस्थान में विकास की मात्रा अधिक होती है ।' विकास के इस क्रम का निर्णय आत्मिक स्थिरता की न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है । स्थिरता का तारतम्य दर्शन और चारित्रमोह शक्ति की शुद्धि की तरतमता पर निर्भर है । पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में आत्मा की दर्शन और चारित्र शक्ति का विकास इसलिए नहीं हो पासा कि उनमें उनके प्रतिबन्धक कारणों की अधिकता रहती है। चतुर्थ आदि गुणस्थानों से वे प्रतिबन्धक संस्कार मन्द होते हैं, जिससे उन-उन गुणस्थानों में शक्तियों के विकास का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। इन प्रतिबन्धक संस्कारों को कषाय कहते हैं ।
इन कषायों के मुख्य रूप में चार विभाग हैं । ये विभाग काषायिक संस्कारों की फल देने की तरतम शक्ति पर आधारित हैं। इनमें से प्रथम विभाग-दर्शन मोहनीय और अनन्तानबन्धी कषाय का है। यह विभाग दर्शनशक्ति का प्रतिबन्धक होता है। शेष तीन विभाग जिन्हें क्रमश अप्रत्याख्यानाबरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते हैं, चारित्रशक्ति के प्रतिबन्धक हैं। प्रथम विभाग की तीव्रता रहने पर दर्शनशक्ति का आविर्भाव नहीं होता है, लेकिन जैसे-जैसे मन्दता या अभाव की स्थिति बनती है, दर्शनशक्ति व्यक्त होती है।
दर्शन शक्ति के व्यक्त होने पर यानी-दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कषाय का वेग शान्त या क्षय होने पर चतुर्थ गुणस्थान के अन्त में
१. यह कथन सामान्य दृष्टि से है। वैसे दूसरा गुणस्थान तो बिकास की
भूमिका नहीं किन्तु ऊपर से पतित हुई आत्मा के क्षणिक अबस्थान का ही भूचक है।