Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
द्वितीय कर्मग्रन्थ
ये लोक के अग्रभाग में विराजमान परमात्मा सिद्ध भगवन्त ज्ञानावरणादि द्रव्य और भावकों से रहित, अनन्तसुखरूपी अमृत का अनुभव कराने वाली शान्ति सहित, नवीन कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शन आदि मैल से रहित, ज्ञान, दर्शन, सुख, बीर्य, अभ्याबाध, अवगाह्नत्व, सूक्ष्मत्व, अगुफलघुत्व इन आठ गुणों सहित, नित्य और कृत-कृत्य (जिनको कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है। हैं। ___कर्मबन्ध के कारण जीव जन्ममरणरूप संसार में परिभ्रमण करता है । कर्मबन्ध और उसके हेतुओं के अभाव एवं निर्जरा मे कर्मों का आत्य. न्तिक क्षय होता है और कर्मबन्ध का सर्वथा क्षय ही मोक्ष है । संसारी जीवों के नवीन कर्मों का बन्ध और पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जग होते रहने का क्रम चलता रहता है। जिससे आत्मस्वरूप की प्राप्ति नहीं हो पाती है। लेकिन कर्मों की निर्जरा के साथ-साथ कर्मबन्ध एवं उसके हेतुओं का भी अभाव होते जाने से जीव आत्मोपलब्धि की ओर बढ़ते हुए अनन्तज्ञान-दर्शन आदि रूप आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
कर्मों की निर्जरा सम्यक्त्व की प्राप्ति मे प्रारम्भ होकर सर्वज्ञ अवस्था में पूर्ण होती है। इससे क्रमशः पूर्व-पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर परिणामों में विशुद्धि मविशेष बढ़ती जाती है। परिणामों में विशुद्धि जितनी अधिक होगी उतनी कमनिर्जरा भी विशेष होगी। अर्थात् पूर्व-पूर्व की अवस्थाओं में जितनी कर्मनिर्जरा होती है, उसकी अपेक्षा
है उसे लोक और जहाँ आकाश के सिवाय जीवादि दृष्यों की स्थिति नहीं है, उसे अलोक कहते हैं । यही विभिन्नता लोक और अलोक के स्वरूप का भेद कराने में कारण है। इसीलिए धर्मास्तिकाय लोक में विद्यमान है, उसके बाहर विद्यमान नहीं है । यदि लोक के बाहर धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की स्थिति मानी जाये तो लोकाकाश और अलोकाका का भेद ही समाप्त हो जायेगा।