Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 207
________________ १७२ कर्मस्तव : परिशिष्ट पुद्गलपरावर्तन : लक्षण व मेव यह पहले संकेत किया गया है कि पुद्गलपरावर्तनरूप काल अनन्त है। यह अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी के बराबर होता है । अतः उसके सम्बन्ध में यहाँ कुछ विशेष वर्णन करते हैं ! ___ यह लोक अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है । ये वर्मणाएँ ग्रहणयोग्य भी हैं और अयोग्य (अग्रहणयोग्य) भी है। अग्रहणयोग्य वर्गणाएँ तो अपना अस्तित्व रखते हुए भी ग्रहण नहीं की जाती हैं, लेकिन ग्रहणयोग्य वर्गणाओं में भी ग्रहण और अग्रहण रूप दोनों प्रकार की योग्यता होती है। ऐसी ग्रहणयोग्य वर्गणाएं आठ प्रकार की हैं १. औदारिकशरीरवर्गणा, २. वैक्रियशरीरवर्गणा, ३. आहारकशरीरवर्गणा. ४. तेजस्शरीरवर्गणा, ५. भाषावर्गणा, ६. प्रवासोच्छ्वासवर्गणा. ७ मनोवर्गणा, ८. कार्मणवर्गणा ।' ये वर्गणाएँ कम से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती हैं । और इनको अवगाहना भी उत्तरोत्तर न्यून अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है । उक्त ग्रहणयोग्य वर्गणाओं में से आहारकशरीरवर्गणा को छोड़कर १. सिद्ध, २. निगोद जीष. ३. प्रत्येक साधारण वनस्पति, ४. भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनों कालों के समय, ५. सब पुद्गल परमाण, ६. अलोकाकाश । इन छहों के मिलाने के बाद जो राशि प्राप्त हो, उसे तीन बार गुणा करके यदि केवलज्ञान और केबलदर्शन को पर्याय मिला दी जाये तो उसे उत्कृष्टानन्तानन्त कहेंगे । १. (क) समान जातीय पुद्गलों के समूह को वर्गणा कहते हैं । (ख) पंचसंग्रह गा० १५ (बन्धन कारण), आवश्यकनियुक्ति गा० ३६ !

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