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वितीय कर्मग्रम्प : परिशिष्ट
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६. प्रमतविरत
७ अप्रमत्सविरत
औदारिकअंगोपांग) कुल १० प्रकृतियों का विन्द चतुर्थ गुणस्तान के अन्त समय में होने से शेष ६७ का बन्ध सम्भव है। मूल ८
उ० ६३ प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का बन्धविच्छेद पांचवें गुणस्थान के अन्त समय में हो जाने से ६७-४ =६३ प्रकृतियों का बन्ध सम्भव है । मूल ८७
उ० ५६५८ छठे गुणस्थान के अन्त में-अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयश:कोति, असातावेदनीय, इन छह प्रकृत्तियों का बन्धादच्छेद हो जाने से शेष रही ५६ । [जो जीवं छठे गुणस्थान में देवायु का बन्ध प्रारम्भ कर उस बन्ध को वहीं समाप्त कर सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसके ५६ प्रकृतियाँ व जो जीव छठे मुणस्थान में देवायु का बन्ध आरम्भ कर सातव में समाप्त करता है उसके ५६-१=५७ प्रकृतियों का बन्ध रहता हैं] तथा सातवें गुणस्थान में आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग का बन्ध सम्भव होने से दो जोड़ने से ५६+२=५८, ५७ - २=५६ प्रकतियों का बन्ध सम्भव है। मूल ७
उ०५८, ५६, २६ प्रथम भाग में ५८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्भव है।
८. अपूर्वकरण