Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
२.
०
। कर्मस्सव : परिशिष्ट
नोट-१. इस गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ व समाप्ति नहीं होती। २. प्रथम भाग के अन्त में निद्रा, प्रचला का विच्छेद हो जाता है अत: ५८-२=५६ ३. दूसरे माग से छठे भाग तक यही ५६ का बन्ध सम्भव है। छठे भाग के अन्त में सुरद्विक (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी) पंचेन्द्रियजाति, शुभविहायोगति, प्रसनवक: (स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय) औदारिकशरीर को छोड़ शेष चार शरीर, औदारिक अंगोपांग को छोड़ शेष दो अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, निर्माण, तीर्थकर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परावास, उच्छ्वास) इन ३० प्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है। सातव भाम में ये नहीं रहती। अत: ५६-३०-२६।। ४. आठवें गुणस्थान के सातव भाग के अन्त में हास्य, रति, जुगुप्सा, भय इन ४ प्रकृतियों का विच्छेद हो जाने मे २६-४=२२ प्रकृतियों का बन्ध नीव में सम्भव है। मुल ७
उ० २२, २१, २०, १६, १८ इस गुणस्थान के प्रारंभ में २२ प्रकृतियों का बंध । १. पहले भाग के अन्त में पुरुषवेद का विच्छेद =२१ । २. दूसरे भाग के अन्त में संज्वलन क्रोध का विच्छेद-२०।
६. अनिवृत्तिवावर