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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
२०३ चतुरिन्द्रिय) तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी-१२ प्रकृतियों का तो उदय नहीं होता किन्तु मिश्रमोहनीय का उदय होता है अतः (१९१ -
१ १ -०८ का उदस सम्भव है। ४. अविरतसम्यग्दृष्टि मूल ८
उ०१०४ सम्यक्त्वमोहनीय व आनुपूर्वीचतुष्क का उदय सम्भव है। किन्तु मिश्रमोहनीय का उदय नहीं होता। अत: १००+५-१-१०४ का उदय
सम्भव है। ५. देशविरत मूल
उ.८७ अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, वैक्रियाष्टक (देवगति, देवायु, देवानुपूर्वी, नरकति, नरकायु, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग) दुर्भगत्रिक (दुर्भगनाम, अनादेयनाम, अयशःकोतिनाम)=१७ का उदय सम्भव नहीं होता।
अतः १०४-१७=८७ का उदय सम्भव है। ६. प्रमत्तविरत मूल ८
उ०१ तिर्यचगति, तिर्यंचानपूर्वी, नीचगोत्र, उद्योतनाम, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का उदय तो सम्भव नहीं किन्तु आहारकद्धिक का सम्भव होने
से ८७-८+२=८१ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं । ७. अप्रमत्तविरत मूल ८
उ.७६ स्त्यानद्धित्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धि) व आहारकद्धिक का अप्रमत्त अवस्था