Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 233
________________ कर्मस्तव : परिशिष्ट स्थान के अन्त में हो जाने से शेष १०१ का बंध सम्भव है। ३. मिश्र मूल ७ उ०७४ सियंचत्रिक (तिर्यचगति, तिर्यंचायु, तिर्यचानुपूर्वी) स्त्यानदित्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानलि) दुर्भगत्रिक (दुभंगनाम, दुःस्वरनाम, आदेयनाम) अनन्तानुबन्धीचतुष्क, मध्यम संस्थानचतुष्क (न्यग्रोधपरिमण्डल, वामन, सादि, कुब्ज) मध्यम संहननचतुष्क (ऋषभनाराच. नाराच, अर्धनाराच, कीलिका) नीचगोत्र, उद्योतनाम, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद=२५ का बन्ध दूसरे गुणस्थान में अन्त होने व मित्र गुणस्थान में किसी आयु का बन्ध सम्भव न होने से शेष दो आयु (मनुष्यायु, देवायु) को घटा देने से २७ प्रकृतियों कम होती हैं । ४. अविरतसम्पदृष्टि मूल ८ उ०७७ मनुष्यायु, देवायु व तीर्थकर नाम का बन्ध होने से मिश्र गुणस्थान की ७४ प्रकृतियों में यह तीन जोड़ें=७७ । नोट- नरक व देव जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती हैं, वे तो मनुष्यायु का और तियेच व मनुष्य देवायु का बन्ध करते हैं । ५. वेशविरस मूल ८ ज.६७ वजऋषभनाराचसंहनन, मनुष्यत्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यायु, मनुष्यानुपूर्वी) अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, औदारिकद्विक (औदारिकशरीर,

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