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कर्मस्तव : परिगिष्ट देशचिरत के ११ भेद दिगम्बर साहित्य (गो. जीवकांड गा० ४७६) में हैं । जैसे-(१) दर्शन, (२) व्रत, (३) सामायिक, (४) प्रोषध, (५) सचित्तविरति, (६) रात्रिभोजनविरति, (७) ब्रह्मचर्य, (८) आरम्भविरति, (इ) परिग्रह विरति, (१०) अनुमतिविरति, (११) उद्दिष्टबिरति । इनमें 'प्रोषध' शब्द स्वेताम्बर सम्प्रदायप्रसिद्ध 'पौषध' शब्द के स्थान पर है।
पवेताम्बर और दिगम्बर कर्मग्रन्थकारों ने गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियो समान मानी हैं। लेकिन दिगम्बर ग्रन्थों (गो० कर्मकांड) में सातवें गुणस्थान-अप्रमत्तविरत गुणस्थान में ५६ प्रकृतियों का और श्वेताम्बर कर्मग्रन्थकारों ने ५८ या ५६ प्रकृतियों का बन्ध माना है । इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जो जीव छठे गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ कर उसे उसी गुणस्थान में समाप्त किये बिना सातवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं, ननकी अपेक्षा ५६ प्रकृतियाँ बंधयोग्य हैं और जो जीव छठे गुणस्थान में प्रारम्भ किये गये देवायु के बंध को छठे गुणस्थान में ही समाप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा ५८ प्रकृतियों का बंध होता है। (विशेष मा० ७, ८ की व्याख्या में देखिए।
पवेताम्बर और दिगम्बर कर्मग्रन्थों में गुणस्थानों की उदय व उदीरणा योग्य प्रकृतियां समान मानी हैं। लेकिन यह समानता दिगम्बर ग्रन्थ गो० कर्मकांड गा० २६४ में उल्लिखित भूतबलि आचार्य के मतानुसार मिलती है और उसी ग्रन्थ में (गा० २६३) व्यक्त यतिवृषभाचार्य के मत से कहीं मिलती है और कहीं नहीं मिलती है । यतिवृषभाचार्य पहले गुणस्थान में ११२ प्रकृतियों का और चौदहवें गुणस्थान में १३ प्रकृतियों का उदय मानते हैं। कर्मग्रन्थ में पहले गुणस्थान में ११७ और चौदहवें गुणस्थान में १२ प्रकृतियों का उदय बताया है।