Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 212
________________ • द्वितीय मंत्र fine १७७ की संख्या एवं गुणस्थानों, मार्गणाओं में कर्मों के अन्ध आदि के सम्बन्ध में सैद्धान्तिकों, कर्मग्रन्थकारों तथा श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचित कर्मसाहित्य के विषय प्रतिपादन में अधिकांशतः समानता परिलक्षित होती है । कथंचित् भित्रता भी है जो कर्मविषयक अध्ययन और मनन के योग्य होने से कतिपय बिन्दुओं को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । ; गुणस्थान का लक्षण स्वेताम्बर ग्रन्थों में गुणस्थान की व्याख्या- 'ज्ञान आदि गुणों की शुद्धि और अशुद्धि के न्यूनाधिक भाव से होने वाले जीव के स्वरूप को गुणस्थान कहते हैं' - की गई है । परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में गुणस्थान की व्याख्या इस प्रकार है- 'दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय को उदय आदि अवस्थाओं के समय जो भाव होते हैं, उनसे जीवों का स्वरूप जाना जाता है, इसीलिए वे भाव गुणस्थान कहलाते हैं ।' - गोम्मटसार जीवकांड गा०८ आगमों में गुणस्थान शब्द के लिए जीवस्थान शब्द प्रयोग देखने में आता है। गुणस्थान शब्द का प्रयोग आगमोत्तरकालीन आचार्यो द्वारा रचित कर्मग्रन्थों एवं अन्य ग्रन्थों में किया गया है। षटखण्डागम की धवला टीका में गुणस्थानों के लिए 'जीवसमास' शब्द का प्रयोग देखने में आता है और इसका कारण स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव गुणों में रहता है अतः उसे जीवसमास कहते हैं । दिगम्बर साहित्य (गो० जीवकांड, गा० ६२२ ) में गुणस्थान के क्रम से जीवों के पुण्य, पाप दो भेद किये हैं। मिध्यात्वी या मिथ्यात्वोन्मुखी जीवों को पापजीव और सम्यक्त्वो जीवों को पुण्यजीव कहा है ।

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