Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव : परिशिष्ट कषायस्थानों को क्रम से जितने समय में स्पर्श करता है अर्थात् किसी भाव के मन्द परिणाम के स्पर्श करने के बाद अगर वह दुसरे भाव को स्पर्श करता है तो वह उसमें नहीं गिना जायेगा । लेकिन जब उसी भाव के दूसरे परिणाम का स्पर्श करेगा तभी वह मिना जायेगा। इस प्रकार क्रमशः प्रत्येक भाव के सभी परिणामों को स्पर्श करता हुआ जीव जव सभी भावों का स्पर्श कर लेता है तब सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन पूर्ण होता है।
उक्त आठ भेदों में बादर भेदों का स्वरूप केवल सूक्ष्म परावर्तनों को समझाने के लिए दिया गया है। शास्त्रों में जहाँ पुद्गलपरावर्तन काल का निर्देश आता है, वहाँ सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन ही लेना चाहिए । जैसे सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद जीव देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। वहाँ काल का सुक्ष्म पुद्गलपरावर्तन ही लिया जाता है।
इस प्रकार जैन-वाङ्मय में कालगणना का अति सूक्ष्म, गम्भीर और तलस्पर्शी विवेचन किया गया है। अपेक्षाभेद से इस काल की समय से लेकर भूत, वर्तमान, भविष्य, संख्यात, असंख्यात. अनन्त आदि के रूप में गणना कर लें। लेकिन इन भेद-प्रभेदों से उसकी अनन्तता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता है। इसीलिए लोक, जीव आदि द्रव्यों को काल की अपेक्षा मे अनादि-अनन्त माना है। लोक अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा। इस लोक में विद्यमान संसारी जीव सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद अनन्त संसार का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
तुलनात्मक मंतव्य
(श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यता सामान्यतया कर्मों को बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता प्रकृतियों