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द्वितीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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शेष औदारिकादि प्रकार से रूपी द्रव्यों को ग्रहण करते हुए एक जीव द्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों का स्पर्श करना पुद्गलपरावर्तन कहलाता है ।
एक मुद्गपर्नल व्यतीत होने में अनन्त कालचक लग जाते हैं । अद्धापत्योपम की अपेक्षा से २० कोटाकोटि सामरोपम का एक कालचक्र होता है ।
पुद्गलपरावर्तन के मुख्य चार भेद हैं
१. द्रव्य पुद्गलपरावर्तन, २. क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन, ३. काल पुद्गलपरावर्तन, ४ भाव पुद्गलपरावर्तन ।' और इन चारों के भी बादर और सूक्ष्म यह दो-दो प्रकार के होते हैं। इस प्रकार में पुद्गलपरावर्तन के निम्नलिखित आठ भेद हैं
१. बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन, २ सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्तन, ३. बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन, ४. सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन, ५. बादर काल पुद्गलपरावर्तन ६. सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन, ७. बादर भाव पुद्गलपरावर्तन, ८. सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन | इन आठ भेदों की व्याख्या क्रमशः निम्न प्रकार है
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१. बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन - जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को आहारकशरीरवर्गणा के सिवाय शेष औदारिकशरीर आदि सातों वर्गणारूप में ग्रहण करके
१. दिगम्बराचार्यों ने इन चार पुद्गलपरावर्तनों के अतिरिक्त विभेद म पुद्गपरावर्तन माना है । सुसः जीव का नरक की छोटी से छोटी आयु लेकर वेवक विमान तक की आयु को समय कम से प्राप्त कर भ्रमण करना भव परावर्तन है |