Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मस्तव : परिशिष्ट
१३६, १४७, १०१.१४२, १४३, १४४, १४५, १०६ १४७ और १४८ये सोलह सत्ता विकल्प समझना चाहिए।
(५) देशविरति गुणस्थान – चौथे गुणस्थान के अनुसार ही इस गुणस्थान में भी सोलह सत्ता विकल्प होते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि यह गुणस्थान तिर्यंचगति और मनुष्यगति के जीवों को ही होता है । अतः जहाँ-जहाँ अबद्धायुक के प्रसंग में सत्ता बतलाते हुए चारों आयु सत्ता में मानी गई हैं, वहाँ सिर्फ तियंचायु और मनुष्यायु- ये दो आयु at fast चाहिए ।
जैसे अविरतसम्यग्दृष्टि पूर्वबद्धायुष्क उपशम अथवा क्षायोपशमिक अविसयोजक के अनेक जीवों को अपेक्षा १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है, उसके बदले इस गुणस्थान में नरकगति और देवगति नहीं होने से - ये दो गतियाँ नहीं होती हैं । इसलिए १४६ प्रकृतियों की सत्ता समझना चाहिए और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के तियंचायु भी नहीं होने से १३८ प्रकृतियों को सत्ता समझना चाहिए ।
तियंचगति-- चौथे गुणस्थान के समान ही ये जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, परन्तु जो जीव मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय का क्षय करके इस गति में आये हों तो उन्होंने जो सत्ता कम की हो, वह इस गुणस्थान में नहीं होती है। क्योंकि ऐसे जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न होते हैं और वे पाँचवाँ गुणस्थान प्राप्त नहीं करते हैं तथा उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व भी नहीं होता है । इसलिए क्षायिक सम्यक्त्व की भी सत्ता यहाँ नहीं समझनी चाहिए । यहाँ तो सिर्फ उपशम तथा क्षायोपशमिक, अविसंयोजक और विसयोजक से सम्बन्धित सत्ता समझना चाहिए ।
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान - यहाँ भी १४८, १४७, १४६, १४५,