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कर्मस्तव : परिशिष्ट सारांश यह है कि ग्रन्थकार के मतानुसार १२ और १३ प्रकृतियों का तथा अन्य मतानुसार १२ और ११ प्रकृतियों के स्थान होते हैं तथा आहारकचतुष्क सत्ता में न हो तो ६८ प्रकृतियों का क्षय होता है । क्योंकि पहले कही गयी ७२ प्रकृतियों में आहारकचतुष्क का ग्रहण किया गया है और आहारकचतुष्क तो इस जीव को सत्ता में ही नहीं. है, अतः ६८ प्रकृतियों का ही क्षय होता है। अतएव मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, स, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, तीर्थकरनामकर्म, उच्चगोत्र, मनुष्यायु और मनुष्यानुपूर्वी, साताअसाता वेदनीय में से कोई एक-ये तेरह प्रकृतियां और अन्य मता. नुसार मनुष्यानुपूर्वी के बिना बारह प्रकृतियाँ शेष रहती है । ___ लेकिन जिनके तीर्थकरनामकर्म और आहाराचतुष्क सत्ता में न हों, उनके भो ६८ पानियाँ क्षय होती हैं. परन्तु तीर्थकारनामकर्म के बिना बारह प्रकृतियाँ शेष रहती हैं । अन्य मतानुसार मनुष्यानपूर्वी के बिना ग्यारह प्रकृतियाँ शेष रहती हैं ।
इस प्रकार स्वमतानुसार १२, १३ प्रकृतियों का सत्तास्थान तथा अन्य मतानुसार ११ और १२ प्रकृतियों का तथा ८०, ८१, ८४ और ८५- ये छः सत्तास्थान चौदहवें गुणस्थान में होते हैं। ____ अनन्तर चरम समय में बाकी बची हुई समस्त प्रकृतियों का क्षय कर अनादि सम्बन्ध वाले कार्मणशरीर को छोड़कर जन्म-मरण से मुक्त हो मोक्ष में अनन्त काल तक विराजमान रहते हैं ।
इस प्रकार चौदह गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता का वर्णन पूर्ण हुआ । विशेष जानकारी के लिए साथ में दिये गये सत्तायन्त्र को देखिए।
कालगणना : जनवृष्टि शास्त्रों में काल-सूचक समय, आवली, घड़ी, मुहूर्त, पल्योपम,